शुक्रवार, अप्रैल 21

नई कोंपलें जो फूटी हैं


नई कोंपलें जो फूटी हैं

कोकिल के स्वर सहज उठ रहे
जाने किस मस्ती में आलम,
मंद, सुगन्धित पवन डोलती
आने वाला किसका बालम !

गुपचुप-गुपचुप बात चल रही
कुसुमों ने कुछ रंग उड़ेले,
स्वर्ग कहाता था जो भू पर
उसी भूमि पर नफरत डोले ?

कैसा विषम काल आया है
लहू बहाते हैं अपनों का,
जिनसे अम्बर छू सकते थे
कत्ल कर रहे उन स्वप्नों का !

महादेव की धरती रंजित
कब तक यह अन्याय सहेगी,
बंद करें यह राग द्वेष का
सहज नेह की धार बहेगी !

भूल हो चुकी इतिहासों में
कब तक सजा मिलेगी उसकी,
नई कोंपलें जो फूटी हैं
क्यों रोकें हम राहें उनकी !

काश्मीर है अपना गौरव
हर भारतवासी मिल गाये,
एक बार फिर झेलम झूमे
केसर बाग़ हँसे, मुस्काए !


3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुन्दर ... नयी कोंपलें जरूर फूटेंगी और माँ भारती का भाल काश्मीर भी माह्केगा ... सुन्दर रचना है ...

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