गुरुवार, सितंबर 27

उर से ऐसे ही बहे छंद



उर से ऐसे ही बहे छंद


मुक्त गगन है मुक्त पवन है
मुक्त फिजायें गीत सुनातीं,
मुक्त रहे मन चाह यही तो
कदम-कदम पर है उलझाती !

सदा मुक्त जो कैद देह में 
चाहों की जंजीरें बाँधी,
नयन खुले से लगते भर हैं
कहाँ नींद से नजरें जागी !

भावों की हाला पी पीकर
होश गँवाए ठोकर खायी,
व्यर्थ किया पोषण उस 'मैं' का
बुनियाद जिसकी नहीं पायी !

हो निर्भार उड़ा अम्बर में
उस प्रियतम की थाह ना मिली,
छोड़ दिया तिरने को खग सा
विश्रांति हित डाल ना खिली !

तिरने में ही उसे पा लिया
उड़ेंं बादल ज्यों हो निर्बंध,
बरस गये करने जी हल्का
उर से ऐसे ही बहे छंद !

14 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २८ सितंबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  2. भावों की हाला पी पीकर
    होश गँवाए ठोकर खायी,
    व्यर्थ किया पोषण उस 'मैं' का
    बुनियाद जिसकी नहीं पायी !
    बहुत लाजवाब...
    वाह!!!

    जवाब देंहटाएं
  3. स्वागत व आभार रोहितास जी, अनीता जी, सुधा जी व अनुराधा जी !

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुंदर रचना अनिता जी, शब्दों का सुंदर प्रयोग सुंदर समन्वय के साथ, गतिशीलता प्रवाह मान।
    अप्रतिम

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    उत्तर
    1. स्वागत व आभार कुसुम जी, उत्साहवर्धन के लिए शुक्रिया..

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