रविवार, सितंबर 6

अमर स्पर्श -3

अमर स्पर्श

गतांक से आगे

आधुनिक काव्य की भूमिका में पन्त जी लिखते हैं कि ’’कविता करने की प्रेरणा मुझे सबसे पहले प्रकृति निरीक्षण से मिली है, जिसका श्रेय मेरी जन्मभूमि प्रदेश को है। मैं घण्टों एकान्त में बैठा प्राकृतिक दृश्यों को एकटक देखा करता था और कोई अज्ञात आकर्षक मेरे भीतर एक अव्यक्त सौन्दर्य का जाल बुनकर मेरी चेतना को तन्मय कर देता था।’’वह कविता को सौंदर्य की प्रतिनिधि मानते हैं और कहते हैं कि हिमालय में पैदा होने के कारण सौंदर्य तो उनके घर का मेहमान था. उनका व्यक्तित्व भी आकर्षण का केंद्र बिंदु था। गौर वर्ण, सुंदर सौम्य मुखाकृति, लंबे घुंघराले बाल, सुगठित शारीरिक सौष्ठव उन्हें सभी से अलग मुखरित करता था। गाँधी जी से प्रभावित होकर स्कूली शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और घर पर ही हिन्दी, संस्कृत, बँगला और अंग्रेजी भाषा-साहित्य का अध्ययन करने लगे। इलाहाबाद में ही उनकी काव्यचेतना का विकास हुआ। प्रकृति के सुंदर रूप का चित्रण जिस तरह उन्होंने अपनी कविताओं में किया है, छायावाद का कोई अन्य कवि उस ऊँचाई तक नहीं पहुँच सका। उन्हें प्रकृति के सुकुमार कवि भी कहा जाता है. उनकी प्रसिद्ध कविता ‘यह धरती कितना देती है’ को पढ़कर किसका हृदय आह्लाद से न भर जायेगा. उसी कविता का एक अंश - 

अनगिनती पत्तों से लद, भर गयी झाड़ियां,

हरे-भरे टंग गये कई मखमली चंदोवे!

बेलें फैल गयी बल खा, आंगन में लहरा,

और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का

हरे-हरे सौ झरने फूट पड़े ऊपर को,-

मैं अवाक् रह गया-वंश कैसे बढ़ता है!

छोटे तारों-से छितरे, फूलों के छीटे

झागों-से लिपटे लहरों श्यामल लतरों पर

सुन्दर लगते थे, मावस के हंसमुख नभ-से,

चोटी के मोती-से, आंचल के बूटों-से!

ओह, समय पर उनमें कितनी फलियां फूटी!

कितनी सारी फलियां, कितनी प्यारी फलियां,-

पतली चौड़ी फलियां! उफ उनकी क्या गिनती!

लम्बी-लम्बी अंगुलियों - सी नन्हीं-नन्हीं

तलवारों-सी पन्ने के प्यारे हारों-सी,

झूठ न समझे चन्द्र कलाओं-सी नित बढ़ती,

सच्चे मोती की लड़ियों-सी, ढेर-ढेर खिल

झुण्ड-झुण्ड झिलमिलकर कचपचिया तारों-सी!

आह इतनी फलियां टूटी, जाड़ों भर खाईं,

सुबह शाम वे घर-घर पकीं, पड़ोस पास के

जाने-अनजाने सब लोगों में बंटवाईं !

 

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