गुरुवार, अक्तूबर 22

निकट है जो सदा अपना

  निकट है जो सदा अपना

है अधूरा हर समर्पण 

कहाँ कुछ  हम  छोड़ पाते, 

प्रेम पाना चाहते पर 

राज उर में भी छुपाते !


 निकट है जो सदा अपना 

खोजते हम दूर नभ में,

चाहतों से दिल भरा यह 

एक उसकी भी दिखाते !


छिपे अपने लक्ष्य कितने 

उन्हें कैसे भूलता मन, 

सिर झुका है द्वार उसके 

स्वप्न निज सुख का सजाते !


6 टिप्‍पणियां:

  1. है अधूरा हर समर्पण
    कहाँ कुछ हम छोड़ पाते,
    प्रेम पाना चाहते पर
    राज उर में भी छुपाते !,,,,,, बहुत सुंदर रचना,

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  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 23 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. निकट है जो सदा अपना
    खोजते हम दूर नभ में,
    चाहतों से दिल भरा यह
    एक उसकी भी दिखाते !

    वाह !!सुंदर रचना

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