मंगलवार, नवंबर 10

निकट समंदर बहता जाता

निकट समंदर बहता जाता


जाग-जाग कर फिर सो जाता

नींदों में मन स्वप्न दिखाता,

रंग-रूप-रस-गंध खान में 

निज आनंद छुपा रह जाता !

 

घूँट- घूँट भर तृप्त हो रहा

निकट समंदर बहता जाता,

मुक्त गगन की याद न आए

पिंजरे में ही दौड़ लगाता !

 

कैसा भूला भ्रम में खुद को

वंचित हुआ स्वर्ग के सुख से,

इंद्रधनुष को सत्य मानकर

चला उसे है धारण करने !

 

ज्यों सीप में चांदी का भ्रम

मृग मरीचिका मरुथल में है,

पानी मथने में नहीं सार

कहाँ कूप में गंगाजल है !

 

अनजाने दुख धूम्र उठाते

ज्योति ज्ञान की बुझ-बुझ जाती,

एक ही माँ के जाए दोनों

देख-देख कोई मुस्काता !

  

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