सोमवार, दिसंबर 28

अबूझ है मन

अबूझ है मन 

मुँह लगे सेवक सा कब 
हुकुम चलाने लगता है 
पता ही नहीं चलता 

कभी सपने दिखाता है मनमोहक 

कि आँखें ही चौंधियाँ जाएँ

और कभी आश्वस्त करता है 

पहुँचा ही देगा मंजिल पर 

मन की मानें तो मुश्किल 

मनवाएँ उससे यह उससे भी बड़ी 

बुद्धि भी है थक-हार कर खड़ी 

नींद में दुनिया की सैर कराता है 

जागने पर माया के फेर में पड़वाता है 

मासूम सा बना भजन भी गाता है 

कभी पुरानी गलियों में लौटा ले जाता है 

यह पिंजरे का पंछी 

उड़ना ही भूल गया 

इक आस की सींक पर बैठे-बैठे झूल गया

इसको तो बस देखते भर रहना है 

न भागना इससे, न डराना 

निरपेक्ष होना है 

यह मन भी उसी की माया है 

जिसने यहाँ सभी को जाया  है ! 

16 टिप्‍पणियां:

  1. यह मन भी उसी की माया है
    जिसने यहाँ सभी को जाया है !
    बेहद गहनतम भाव ... अनुपम सृजन

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  2. यह मन भी उसकी माया है ... सत्य कहा है ...
    सुन्दर रचना है ...

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  3. वाह क्या बात कही...यह पिंजरे का पंछी

    उड़ना ही भूल गया ...अत्यंत संदर रचना अनीता जी

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  4. गहन भावों से सजी सुन्दर रचना । नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।

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  5. जी बिल्कुल। मन ऐसा ही होता है। बहुत सुंदर सृजन। आपको नये साल 2021 की हार्दिक शुभकामनाएं।

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  6. आदरणीया अनीता जी, इस अच्छी सी कृति हेतु बधाई स्वीकार करें। ।।।।
    आगामी नववर्ष की अग्रिम शुभकामनायें। ।।

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  7. यह मन भी उसी की माया है
    जिसने यहाँ सभी को जाया है !

    जीवनदर्शन से परिपूर्ण बहुत सुंदर रचना...
    नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं 🌹🙏🌹

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  8. अलकनंदा जी, मीना जी, वीरेंद्र जी, पुरुषोत्तम जी व डा शरद जी अप सभी का स्वागत व हृदय से आभार !

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  9. ठीक कहा अनीता जी आपने । इसीलिए मन को जीतना ज़रूरी है । मन की शांति उसी को प्राप्त होगी जो उस पर विजय पा लेगा । उसे हुक्म चलाने वाला मुँह लगा सेवक नहीं बनने देगा ।

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