बुधवार, मार्च 27

जीना है जीवन भूल गए


जीना है जीवन भूल गए  


जब संसार सँवारा हमने 

मन पर धूल गिरी थी आकर, 

जग पानी पी-पी कर धोया 

मन का प्रक्षालन भूल गए !


नाजुक है जो, जरा ठेस से 

आहत होता, किरच चुभे गर, 

दिखता आर-पार भी इसके 

यह बना कांच से भूल गए !


तुलना करना सदा व्यर्थ है 

दो पत्ते भी नहीं एक से, 

व्यर्थ स्वयं को तौला करते 

जीना है जीवन भूल गए ! 


बना हुआ अस्तित्व, मिला सब 

दाता ने है दिया भरपूर, 

खो नहीं जाए लुट न जाए 

चैन की बांसुरी भूल गए !


इक दिन सब अच्छा ही होगा 

यही सोचते गई उमरिया,  

मधुर विनोद, साथ स्वजनों का

है सदा निकट यह भूल गए !

सोमवार, मार्च 25

​​जीवन बँटता ही जाता है

​​जीवन बँटता ही जाता है 


झोली भर-भर कर ले जाओ 

चुकता कब उसका भंडारा,

  चमत्कार यह देख न पाये

जग नूतन चाह जगाता है !


जीवन बँटता ही जाता है !


कण-कण में विश्वास भरा है 

अणु-अणु में गति भर दी किसने, 

सुमधुर, सुकोम, सरस स्वर में 

कोई भीतर से गाता है !


जीवन बँटता ही जाता है !


चट्टानों के भीतर जीवन 

अग्नि गुफाओं में भी सर्जन 

जल, अनिल, अनल, नभ को धारे 

यह धरती माँ सा भाता है !


जीवन बंटता ही जाता है !


स्थूल, सूक्ष्म, कारण इन तीनों 

देहों के पार वही सच है, 

मन उस समता में जागे नित

हर द्वन्द्व जहां गिर जाता है !


जीवन बंटता ही जाता है !


हर रूप वही आकार वही 

भावना, विचार, हर ध्वनि  वही, 

पादप, पशु, पंछी, बादल में 

वह पावन ही दिख जाता है !


जीवन बंटता ही जाता है !


है शिव से न शक्ति विलग कभी 

मन-प्राण समोहित से रहते, 

श्वासों का जो आधार बना 

वह गीतों में गुंजाता है !


गुरुवार, मार्च 21

होली के रंगों में जाने

होली के रंगों में जाने 

 सभी भाव जल गये द्वेष के 

मन उजले-उजले हो आये , 

जिस पर फिर प्रियतम ने आकर 

मदिर अबीर-गुलाल लगाये !


निखर गये हैं रूप सलोने  

अंतर ज्यों आश्वस्त हुए हैं, 

होली के आने से देखो 

आज ह्रदय मदमस्त हुए हैं !


सभी नज़र आते हैं अपने 

आज एक भी नहीं पराया, 

होली के रंगों में जाने 

छुपा कौन सा राज अनोखा !


दूर-दूर ही रहते थे जो 

आज बने हैं सब हमजोली, 

मिलकर सभी मनाने आये 

प्रीत रंग की सुंदर होली !


सोमवार, मार्च 18

गहराई में जा सागर के

गहराई में जा सागर के 


हँसना व हँसाना यारों 

 अपना शौक पुराना है,

आज जिसे देखा खिलते 

कल उसको मुरझाना है !

 

जाने कब से दिल-दुनिया 

ख़ुद के दुश्मन बने हुए, 

बड़े जतन कर के इनको 

तम से हमें जगाना है !

 

बादल नहीं थके अब भी  

कब से पानी टपक रहा ,

आसमान की चादर में 

 हर सुराख़ भरवाना है !


सूख गये पोखर-सरवर  

 दिल धरती का अब भी नम, 

उसके आँचल से लग फिर 

जग की प्यास बुझाना है !


दर्द छुपा सुख  के पीछे  

 संग फूल के ज्यों कंटक, 

किसी तरह  हर बंदे को 

 माया से भरमाना है !


ऊपर ही सोना भीतर 

पीतल, पर उलटा भी है 

गहराई में  सागर के  

सच्चा मोती पाना है !


बुधवार, मार्च 13

जीवन

जीवन 

इतनी शिद्दत से जीना होगा 

जैसे फूट पडती है कोंपल कोई

सीमेंट की परत को भेदकर,

ऊर्जा बही चली आती है जलधार में

चीर कर सीना पर्वतों का 

या उमड़-घुमड़ बरसती है 

बदली सावन की !


न कि किसी जलते-बुझते 

दीप की मानिंद 

या अलसायी सी 

छिछली नदी की तरह पड़े रहें

 और बीत जाये जीवन... का यह क्रम

लिए जाए मृत्यु के द्वार पर

 खड़े होना पड़े सिर झुकाए

देवता के चरणों में चढ़ाने लायक

फूल तो बनना ही होगा

इतनी शिद्दत से जीना होगा…!


गुरुवार, मार्च 7

राह अब भी बहुत शेष है

विश्व महिला दिवस पर 


राह अब भी बहुत शेष है 


बनने लगे हैं कितने ही बिंब 

मन की आँखों के सम्मुख 

छा जाते बन प्रतिबिंब 

कौंध जाते कितने ही ख़्याल हैं 

आख़िर यह विश्व की 

आधी आबादी का सवाल है 

ऐसा लगता है दुनिया

एक पहिये पर ही 

आज तक चलती रही है  

तभी शायद इधर-उधर 

 लुढ़क सी रही है 

किंतु अब समाचार सुनें ताजे 

घुट-घुट कर जीने के दिन गये 

 उठने लगी हैं आवाजें  

उन्हें भी भागीदार बनाओ 

बराबरी का हक़ दिलाओ 

कम से कम जीने तो दो 

बुनियादी अधिकारों को 

अब बन रही है ऐसी दुनिया 

जहाँ पक्षपात नहीं होगा 

 मौक़ा मिलेगा हरेक को

 हुनर दिखाने का

सजग है आज की महिला 

कि वह शक्ति का पुंज  है 

और होकर रहेगी वह 

जो होना चाहती है 

उसे अनुसरण मात्र नहीं करना है 

अपने सपनों में स्वयं रंग भरना है 

इसलिए आज का दिन विशेष है 

पर  राह अब भी बहुत शेष है 

हाशिये पर खड़ी हैं अनगिनत महिलाएँ 

वे भी आगे आयें, ताकि  

 युद्ध में झोंकी जा रही है जो दुनिया

 फिर से हँसे और गुनगुनाए !


बुधवार, मार्च 6

अपना-अपना स्वप्न देखते

अपना-अपना स्वप्न देखते 


एक चक्र सम सारा जीवन 

जन्म-मरण पर जो अवलंबित,

एक ऊर्जा अवनरत  स्पंदित 

अविचल, निर्मल सदा अखंडित ! 


एक बिंदु से शुरू हुआ था 

वहीं लौट कर फिर जाता है, 

किन्तु पुनः पाकर नव जीवन

नए कलेवर में आता है ! 


पंछी, मौसम, जीव सभी तो 

इसी चक्र से बँधे हुए हैं , 

अपना-अपना स्वप्न देखते 

नयन सभी के मुँदे  हुए हैं !


हुई शाम तो लगीं अजानें  

घंटनाद कहीं जलता धूप  ,

कहीं आरती, वन्दन, अर्चन 

कहीं सजा महा सुंदर रूप !


एक दिवस अब खो जायेगा 

समा काल के भीषण मुख में, 

कभी लौट कर न आयेगा 

बीता चाहे सुख में दुःख में ! 


एक रात्रि होगी अन्तिम भी 

तन का दीपक बुझा जा रहा, 

यही गगन तब भी तो होगा 

पल-पल करते समय जा रहा !


सोमवार, मार्च 4

पराधीनता

पराधीनता 


उस दिन वह बहुत रोयी थी, आँगन में बैठकर ज़ोर से आवाज़ निकालते हुए, जैसे कोई उसका दिल चीर कर ले जा रहा हो। शायद उसकी चीख में उन तमाम औरतों की आवाज़ भी मिली हुई थी जिन्हें सदियों से दबाया जाता रहा था। उनकी माएँ, दादियाँ, परदादियाँ और जानी-अनजानी दूर देशों की वे औरतें, जिन्हें अपने सपनों को जीने का हक़ नहीं दिया जाता है। उसने जिस पर इतना भरोसा किया था, जिसे अपना सर्वस्व माना था, जिसे ख़ुद को भुलाकर, टूटकर प्यार किया था। उसकी एक बात उसे किस कदर चुभ गई थी। जब उसने कहा था, यदि उसने उसकी इच्छा के विरुद्ध घर से बाहर कदम रखा तो वह उसे छोड़ कर चला जाएगा, इतना सुनते ही जैसे उसके सोचने समझने की शक्ति ही जाती रही थी। उसने यह भी नहीं सोचा, उसकी नौकरी है, घर है, बच्चा है, वह कैसे जा सकता है ? ये शब्द उसके मुख से निकले ही कैसे, बस यही बात उसे तीर की तरह चुभ रही थी।वह उसे चुप कराने भी आया, पर दर्द इतना बड़ा था कि समय ही उसका मलहम बन सकता था। कुछ देर बाद ही वह अपने आप ही शांत हो गई थी, उसके मन ने एक निर्णय ले लिया था, जैसे वह उसे छोड़ने की बात सोच सकता था, तो उसे भी अपना आश्रय कहीं और खोजना होगा, ईश्वर के अतिरिक्त कोई उसका आश्रय नहीं बन सकता था। शाम तक मन शांत हो गया और अगके दिन तक वह सामान्य भी हो गई थी, पर भीतर बहुत कुछ बदल चुका था। वह जो आँख बंद करके उसके पीछे चली जा रही थी, नियति ने उसे जैसे चौंका दिया था। उस दिन के बाद वह अपने भीतर देखने लगी, जहॉं मोह के जाल बहुत घने थे, जिन्हें उसे काटना था। उसने मन ही मन कहा, आज से मैंने भी तुम्हें मुक्त किया।पहले वह उसकी एक क्षण की चुप्पी से घबरा जाती थी, जैसे उसकी जान उसमें अटकी थी। अब उसे अपने पैरों पर खड़ा होना था, ये पैर बाहर नहीं थे, मन में थे।मन जो पहले उसका इतना आश्रित बन चुका था, उसे स्वयं पर निर्भर करना था। कोई भी संबंध तभी दुख का कारण बनता है जब दो में से कोई एक हद से ज़्यादा दूसरे पर आश्रित हो। वह जैसे उसकी आँख़ों से जगत को देखती आयी थी। उसकी अपनी कोई पहचान ही नहीं थी। उसका एकमात्र काम था, उसके इशारों पर चलना, और यह भूमिका उसने ख़ुद चुनी थी, अपने पूरे होश-हवास में, वह इसे प्रेम की पराकाष्ठा समझती थी। पर अब सब कुछ बदल रहा था, आज सोचती है तो उसे लगता है, उस दिन का वह रुदन उसके नये जीवन का हास्य बनाकर आया था। अब वह उसके बिना भी मुस्कुराना सीखने लगी थी। उनके मध्य कोई कटुता नहीं थी, शायद संबंध परिपक्व हो रहे थे। शायद वे बड़े हो रहे थे। अपनी ख़ुशी के लिए किसी और पर निर्भर रहना उसकी पराधीनता स्वीकारना ही तो है। इसे प्रेम का नाम देना कितनी बड़ी ग़लतफ़हमी है। उसने यह बात सीख ली थी और अब अपने लिए छोटे-छोटे ही सही कुछ निर्णय ख़ुद लेना सीख रही थी।   


शनिवार, मार्च 2

शुरू हुआ मार्च का मार्च

शुरू हुआ मार्च का मार्च 

यह नव ऋतु के आगमन का काल है 

जब पकड़ ढीली हो गई है जाड़ों की 

अंगड़ाई ले रही हैं नई कोंपलें

 वृक्षों की डालियों पर 

शीत निद्रा से जागने लगे हैं जंतु 

जो धरा के गर्भ में सोये थे

खिलने लगे हैं डैफ़ोडिल भी 

हज़ारों क़िस्म के फूलों के साथ 

आने को है महा शिवरात्रि का पर्व 

बढ़ाने महिला दिवस का गौरव 

इसी माह को जाता है श्रेय 

रमज़ान के आगाज़ का  

फिर आएगा झूमता गाता 

रंगीन पर्व मदमाती होली का 

कहते हैं मंगल से जुड़ा है 

गुलाबी रंगत लिए यह महीना 

जिसमें आकाश का रंग है नीला  

जंगल और हरे हो गये हैं 

पक्षी लौटने लगे हैं अपने ठिकानों पर 

पता है न,  मनाते हैं मार्च में 

जल और वन दिवस  

कविता व गौरैया दिवस 

आनंद और निद्रा दिवस  

और तो और 

सामान्य शिष्टाचार दिवस भी 

कितना कुछ समेटे है अपनी झोली में 

मार्च का यह वासंती मास 

जो बनाता है इसे ख़ासम ख़ास !