शनिवार, जून 17

दुलियाजान में गुरूजी

दुलियाजान में गुरूजी

सूरज, गगन, धरा, वट, पंछी

पुलकित होकर हुए तृप्त हैं,

इक ही सुर में सब गाते हैं 

उसी की चाहत जो मुक्त है !


मुक्त सदा जो हर बंधन से

दुःख, पीड़ा,  क्षुद्र  अंतर  से,

सुख, शांति, आनंद स्वरूप वह 

चिन्मय हो आया कण-कण से !


वह जो करुणा रूप बुद्ध का

झलकाए नानक की मस्ती, 

मस्त हुआ है जो कबीर सा

गूंज रहा बन कृष्ण बांसुरी !


मीरा सी है भक्ति ह्रदय में 

महावीर सा ज्ञान अनूठा,

शंकर का अद्वैत पी गया

रामकृष्ण सी सहज सरलता !


फौलादी विश्वास का अधिप

फूल सा मृदुल  बालक जैसा,

प्रखर बुद्धि अद्भुत योगी है

स्नेह लुटाता पालक जैसा !


चकित हुए सब दीवाने भी

सबके दिल में घर कर लेता,

दुलियाजान बिछाये पलकें

राह उसी की देखा करता !



अनिता निहालानी
२१ फरवरी २०१०
दुलियाजान, असम

7 टिप्‍पणियां:

  1. वाह! बहुत सुन्दर प्रस्तुति, तो दुलिआजान में भी ब्लॉगर हैं! बहुत खुशी की बात है!

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  2. "चकित हुए सब दीवाने भी
    सबके दिल में घर कर लेता
    दुलियाजान बिछाये पलकें
    राह उसी की देखा करता"
    शब्द संयोजन और भाव अति सुंदर.
    दुलियाजान जगह का नाम मैंने तो पहली बार सुना है - धन्यवाद्

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  3. चकित हुए सब दीवाने भी
    सबके दिल में घर कर लेता
    दुलियाजान बिछाये पलकें
    राह उसी की देखा करता

    पहली बार आय आपके ब्लॉग पर ...अच्छा लगा ..बहुत सुन्दर रचना है ...एक सुन्दर अभिव्यक्ति .....ऐसे ही लिखते रहे .....बधाई स्वीकारे

    http://athaah.blogspot.com/

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  4. bahut hi badhiya likha hai aapnae.

    mere blog ko bhi padhe.aur apana view jaroor likhe.
    http://www.mukeshgkp.blogspot.com/

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  5. वाकई उम्दा लिखती हैं आप।
    चिट्ठाजगत में आपका स्वागत है। हिंदी ब्लागिंग को आप और ऊंचाई तक पहुंचाएं, यही कामना है।
    यहां पधार सकती हैं -
    http://gharkibaaten.blogspot.com

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