बुधवार, अगस्त 30

गीत अंतर में छिपा है


गीत अंतर में छिपा है


शब्द कुछ सोये हुए से
भाव कुछ-कुछ हैं अजाने,
गीत अंतर में छिपा है
सृजन की कुछ बात कर लें !

बीज भीतर चेतना का
फूल बनने को तरसता,
बूंद कोई कैद भीतर
मेघ बन चाहे बरसना !

आज दिल से कुछ रचें हम
मन नहीं यूँ व्यर्थ भटके,
तृषा आतुर तृप्त होगी
ललक जब अंतर से प्रकटे !

संग गगन आँख मींचे
आज कुछ नव गीत गाएं,
मुक्त होकर करें विचरण
सुरों के पौधे लगायें !


7 टिप्‍पणियां:

  1. सूखते मानवीय अंतरघटों को नवचेतना से नवगीत गाने-गुनगुनाने की प्रेरणा देती सुन्दर गीतिका

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    1. सुंदर शब्दों में तुरंत प्रतिक्रिया देने के लिए आभार विकेश जी !

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  2. बहुत सुन्दर...
    बीज भीतर चेतना का
    फूल बनने को तरसता...
    लाजवाब प्रस्तुति...

    जवाब देंहटाएं
  3. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना…. - शैलेन्द्र और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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