सोमवार, सितंबर 28

पंख पसार उड़े क्षितिजों तक

 पंख पसार उड़े क्षितिजों तक 

एक जागरण ऐसा भी हो 

खो जाए जब अंतिम तन्द्रा, 

रेशा-रेशा नाचे ऊर्जित 

मिटे युगों की भ्रामक निद्रा !


मन जो सिकुड़ा-सिकुड़ा सा था 

पंख पसार उड़े क्षितिजों तक, 

सारी कायनात भरने फिर 

बाहें फैलें नीलगगन तक !


दूजा नहीं दिखाई देता 

संग पवन के चले डोलते,

चहूँ ओर वसन्त छाया हो 

नयन प्रेम के राज खोलते !


संशय, भ्रम, भय जलें अग्नि में 

अनहद घन मंजीरे बजते,

मानस भू पर बहे प्रीत रस 

थिरकें झूमें पुष्प ख़ुशी के !


एक जागरण ऐसा भी हो 

फिर न कभी मदहोशी घेरे, 

नहीं सताए कोई अभाव 

पलकों में ना स्वप्न अधूरे !


6 टिप्‍पणियां:

  1. एक जागरण ऐसा भी हो

    खो जाए जब अंतिम तन्द्रा,

    रेशा-रेशा नाचे ऊर्जित

    मिटे युगों की भ्रामक निद्रा
    बहुत सुंदर पंक्तियाँ

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  2. एक जागरण ऐसा भी हो

    फिर न कभी मदहोशी घेरे,

    नहीं सताए कोई अभाव

    पलकों में ना स्वप्न अधूरे ! सुन्दर कृति - -

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