शुक्रवार, जून 18

प्रकृति के कुछ रंग

प्रकृति के कुछ रंग

अपने–अपने घरों में कैद

खुद से बतियाते

अपने इर्दगिर्द ब्रह्मांड रचने वाले लोग

क्या जानें कि नदी क्यों बहती है

दूर बीहड़ रास्तों से आ

ठंडे पानी को अपने अंक में समेटे

तटों को भिगोती, धरा को ठंडक

पहुंचाती चली जाती है

क्यों सूरज बालू को सतरंगी बनाता

नदी की गोद से उछल कर शाम ढले उसी में सो जाता है

आकाश झांकता निज प्रतिबिम्ब देखने

संवारते नदी के शीशे में वृक्ष भी अपना अक्स

सदियों से सर्द हुआ मन

धूप की गर्माहट पा पिघल कर

बहने लगता है नदी की धारा के साथ

बर्फ की चादर से ढका धरा का कोना

जैसे सुगबुगा कर खोल दे अपनी आँखें

नन्हे नन्हे पौधों की शक्ल में

मन की बंजर धरती पर भी गुनगुनी धूप

की गर्माहट पाकर गीतों के पौधों उग आते

हल्की सी सर्द हवा का झोंका घास को लहराता हुआ सा

जब निकल जाये

तो गीतों के पंछी मन के आंगन से उड़कर

नदी के साथ समुन्दर तक चले जाते

धूप की चादर उतार, शाम की ओढ़नी नदी ओढ़े जब

सिमट आयें अपने-अपने बिछौनों में

अगली सुबह का इंतजार करते कुछ स्वप्न !

 

4 टिप्‍पणियां:

  1. प्रकृति का सौंदर्य तो अद्भुत ही होता है। आपने इसे शब्दों में बाख़ूबी ढाला है। प्रकृति में चहुँओर बिखरी पड़ी ख़ुशबू चाहे वस्तुतः नासिका तक न पहुँच पाती हो, आपके शब्दों से वह मन तक अवश्य पहुँच गई है। अभिनंदन।

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    1. प्रोत्साहन देती प्रतिक्रिया के लिए स्वागत व आभार !

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  2. प्रकृति के बिम्बों की मनोहारी छटा!!!

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