रविवार, अक्तूबर 24

जब उर अंधकार खलता है

जब उर अंधकार खलता है 


जगमग शिखि समान तब कोई 

सुहृद सहज आकर मिलता है 


 पूर्ण हुआ वह राह दिखाता

नहीं अधूरापन टिकता है 


अविरल बहे काव्य की धारा 

उर मरुथल बन क्यों रहता है 


थिर पाहन सा जब हो मानस 

निर्झर तब उससे बहता है 


प्रीत अगन उसको पिघला दे 

मन जो सघन विरह सहता है 


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