एक हँसी भीतर सोयी है
रुनझुन-झुन धुन जहाँ गूंजती
एक मौन भीतर बसता है,
मधुरिम मदिर ज्योत्सना छायी
नित पूनम निशिकर हँसता है !
निर्झर कोई सदा बह रहा
एक हँसी भीतर सोयी है,
अंतर्मन की गहराई में
मुखर इक चेतना सोयी है !
जैसे कोई पता खो गया
एक याद जो भूला है मन,
भटक रहा है जाने कब से
सुख-दुःख में ही झूला है तन !
ज्यों इक अणु की गहराई में
छिपी ऊर्जा है अनंत इक,
एक हृदय की गहराई में
छिपा हुआ है कोई रहबर !
सुंदर भावाभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(२०-०९-२०२१) को
'हिन्दी पखवाड़ा'(चर्चा अंक-४१९३) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
गूढ़ार्थ युक्त अच्छी कविता है यह आपकी। अभिनंदन। द्वितीय पद की अंतिम पंक्ति को 'मुखर चेतना इक सोयी है' लिखना सम्भवतः अधिक उपयुक्त रहता।
जवाब देंहटाएंआपका सुझाव अति समुचित है, स्वागत व आभार!
हटाएंमन ही तो अनेक अलंकरण की खान है !!बहुत सुंदर !!
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार अनुपमा जी !
हटाएंज्यों इक अणु की गहराई में
जवाब देंहटाएंछिपी ऊर्जा है अनंत इक,
एक हृदय की गहराई में
छिपा हुआ है कोई रहबर !
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अध्यात्मिक भाव लिए अत्यंत सुंदर सृजन।
सादर।
स्वागत व आभार श्वेता जी !
हटाएंबहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति!
जवाब देंहटाएंअत्यंत गहरे भाव!
स्वागत व आभार !
हटाएंहँसी की रूनझुनी खनक आह्लादित कर रही है । सदैव की भांति अति सुन्दर भाव सृजन ।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार अमृता जी !
हटाएंस्वागत व आभार !
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