जैसे कोई घर लौटा हो
जगत पराया सा लगता था
जब थी तुझसे पहचान नहीं,
तेरी आँखों को पहचाना
सबमें झांक रहा था तू ही !
अब कहाँ कोई है दूसरा
जैसे कोई घर लौटा हो,
कतरे-कतरे से वाक़िफ़ है
जिसने अपना मन देखा हो !
जीवन का प्रसाद पाएगा
आज यहीं इस पल में जी ले,
दिल की धड़कन में जो गूँजे
गीत बनाकर उसको पी ले !
शावक के नयनों से झाँके
फूलों के नीरव झुरमुट में,
तारों की टिमटिम जिससे है
भ्रम के उस अनुपम संपुट से !
एक वही तो सदा पुकारे
प्रेम लुटाकर पोषित करता,
रग-रग से वाक़िफ़ है सबकी
अनजाना सा बन कर रहता !
आपकी लिखी रचना सोमवार 19 सितम्बर ,2022 को
जवाब देंहटाएंपांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
बहुत बहुत आभार संगीता जी !
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(१९-०९ -२०२२ ) को 'क़लमकारों! यूँ बुरा न मानें आप तो बस बहाना हैं'(चर्चा अंक -४५५६) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत बहुत आभार अनीता जी !
हटाएंवाह! एक अलग अहसास।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार विश्वमोहन जी !
हटाएंजीवन का प्रसाद सा ही अनुपम भाव। पा लिया हो जैसे। अति सुन्दर कृति।
जवाब देंहटाएंस्वागत है अमृता जी !
जवाब देंहटाएंप्रेम लुटाकर पोषित करता
जवाब देंहटाएंवाह!!!
अद्भुत अप्रतिम।
उसकी कृपा सदा बनी रहे, स्वागत व आभार सुधा जी!
हटाएंसचमुच एक वही तो है जो सभी जीवों को निःस्वार्थ प्रेम करता है।
जवाब देंहटाएंपरमपिता के प्रति असीम श्रद्धा प्रकट करती सुंदर कृति।
प्रणाम
सादर।
शुभकामनाएँ! स्वागत व आभार श्वेता जी!
हटाएंअदृश्य परम सत्ता की अनूठी अभ्यर्थना प्रिय अनीता जी।सच में वही है जो सबके भीतर स्पंदन का मूल है।
जवाब देंहटाएंसही कहा है आपने, स्वागत व आभार रेणु जी!
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंएक वही तो सदा पुकारे
जवाब देंहटाएंप्रेम लुटाकर पोषित करता,
रग-रग से वाक़िफ़ है सबकी
अनजाना सा बन कर रहता !
बहुत सुंदर भाव । उस अलौकिक परम शक्ति को नमन, जिसने हम सबको और इस संसार को बनाया है । हमेशा की तरह सुंदर.. मनन और चिंतन से निकली रचना ।