रविवार, मार्च 2

अब बहुत हुआ लुकना-छिपना


अब बहुत हुआ लुकना-छिपना

कब अपना घूंघट खोलेगा 
कब हमसे भी तू बोलेगा, 
राधा का तू मीरा का भी 
कब अपने सँग भी डोलेगा! 

अपना राज छिपा क्यों रखता 
क्यों रस तेरा मन ना चखता, 
जब तू ही तू है सभी जगह 
इन नयनों को क्यों ना दिखता! 

अब और नहीं धीरज बँधता
मुँह मोड़ भला क्यों तू हँसता, 
अब बहुत हुआ लुकना-छिपना  
तुझ बिन ना अब यह दिल रमता! 

जो तू है, सो मैं हूँ, सच है 
पर मुझको अपनी खबर कहाँ, 
अब तू ही तू दिखता हर सूं 
जाती है अपनी नजर जहाँ ! 

यह कैसा खेल चला आता 
तू झलक दिखा छुप जाता है, 
पलकों में बंद करूं कैसे 
रह-रह कर बस छल जाता है ! 

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर अनीता जी ! हदय के निश्छल असीम प्रेमभाव से आप स्वयं तो जुड़ी और आनंदमय रस भी प्राप्त किया । जो बहुत सौभाग्यशाली है और अपने हमें भी इस सौभाग्यस्वरुप को अपनी रचना से एकनिष्ठ जोड़ दिया । बहुत बहुत धन्यावाद आपका !

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    1. स्वागत व आभार आपका भी प्रियंका जी इस रस का आस्वादन करने के लिए!

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