मौन की गूँज
सन्नाटा बहता जाता है
नीरवता छायी है भीतर,
खामोशी सी पसर रही है
गूंज मौन गूँजे रह-रह कर !
तृप्ति सहज धारा उतरी ज्यों
सारा आलम भीग रहा है,
ज्योति स्तंभ का परस सुकोमल
हर अभाव को पूर रहा है !
चाहत की फसलें जो बढ़तीं
काटीं किसने कौन बो रहा,
जगत का यह प्रपंच सुहाना
युग-युग से अनवरत चल रहा !
बहुत ही मनमोहक
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार प्रियंका जी !
हटाएंबहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंVery Nice Post.....
जवाब देंहटाएंWelcome to my blog
thanks
हटाएंSach mein! Jagat ka yeh prapanch, anavarat chal raha hai! :) Bahut sundar rachna!
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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