शनिवार, अगस्त 2

जीवन एक अदृश्य ज्योति सा

जीवन एक अदृश्य ज्योति सा 

कोई कहीं तलाश न करता 

भीतर न सवाल कोई शेष, 

नहीं राग अब सुख का उर में 

रह नहीं गया दुखों से द्वेष !


एक खेल सा जीवन लगता 

 अब न मोह में डाले माया,

एक अनंत मिला है बाहर 

एक शून्य भीतर जग आया !


इस पल में ही छुपा काल है 

एक बिंदु में सिंधु समाया, 

कण-कण में ब्रह्मांड बसे हैं 

इसी पिंड में उसको पाया !


जीवन एक अदृश्य ज्योति सा 

चारों ओर हवा सा बिखरा, 

सुमिरन की सुवास इक हल्की 

श्वासों से जाता है छितरा !


शुक्रवार, अगस्त 1

है और नहीं

है और नहीं 

जो ‘है’ 

वह कहने में नहीं आता 

जो ‘नहीं है’ 

वह दिल में नहीं समाता 

जो ‘होकर’ भी ‘न हो’ जाये 

जो ‘न होकर’ भी दिल को लुभाये 

वही तो सत्य का आयाम है 

जहाँ मौसमी नहीं 

तृप्ति के शाश्वत फूल खिलते हैं 

ठहर जाता है मन का अश्व 

हठात् और भौंचक 

तकता है 

निर्निमेष 

जहाँ मौन का साम्राज्य है 

खोल देती है प्रकृति 

अपने राज 

जाया जाता है 

जहाँ बेआवाज़ !