मंगलवार, अप्रैल 29

जीवन का जो मोल न जानें



जीवन का जो मोल न जानें 



दुश्मन मित्र बने बैठे हैं 

बाहर वाले लाभ उठाते, 

लोभ, मोह से बिंधे यदि जन 

बाहर भी निमित्त बन जाते !


पहले ख़ुद को बलशाली कर 

घर भेदी का करें सफ़ाया, 

बाहर वाले तोड़ सकें ना

बने सुरक्षा का इक घेरा !


जीवन का जो मोल न जानें 

ऐसे असुरों से लड़ना है, 

अंधकार में भटक रहा हैं

दर्प भ्रमित मन का हरना है !


रविवार, अप्रैल 27

क़ानून

क़ानून 

हक़ दूजे का कभी न मारे  

बस इतना ख़्याल जो रख पाये  

जो जिसका अधिकार है 

वह मिल ही जाएगा  

एक क़ानून ऐसा भी है 

जो दिखायी नहीं देता 

पर चल रहा है अहर्निश 

अमानत में खयानत करने वाले को 

एक न एक दिन धर लिया जाएगा 

सच्चा धर्म जब तक जाना नहीं 

केवल निहित स्वार्थ 

सिद्ध किया धर्म के नाम से 

 पर आख़िर कब तक 

लोगों को भरमाया जाएगा !


गुरुवार, अप्रैल 24

पहलगाम में आतंक

पहलगाम में आतंक 

 

कातर असीम दुख से

हर भारतीय का ह्रदय

उबल रहा हर मन 

क्रोध और बेबसी से 

देख आतंक का ऐसा भयावह रूप 

नम हैं करोड़ों आँखें 

  कानों में गूँजती 

 चीख-पुकार उन निर्दोष पर्यटकों की

जिन्हें मौत के घाट उतारा गया

 परिजनों के सामने 

वह नव विवाहिता 

 बैठी पति की मृत देह के समीप 

जैसे बैठी हो सावित्री  

पर जीवित नहीं होगा उसका सत्यवान

पत्नी और पुत्र के सामने गोली उतार दी 

जिस व्यक्ति के सीने में 

 दिल चीर देती है उनकी मुस्कान

जब कश्मीर को जन्नत बता रहे थे 

 एक दिन पहले शिकारे में बैठे हुए 

कश्मीर में कितना खून बहा है 

पर आतंक का ऐसा घिनौना रूप 

शायद पहली बार दिखा है 

नाम पूछ और पढ़वा कलमा 

जहाँ क़त्ल तय किया गया

हुई मानवता की नृशंस हत्या 

जहाँ अब नहीं जाएँगे यात्री 

सूना रह जाएगा पहलगाम और गुलमर्ग 

नहीं देखेगा कोई डल झील की ख़ूबसूरती 

क़िस्मत बदल रही थी जब कि 

दशकों बाद कश्मीर की !


मंगलवार, अप्रैल 22

वेद ऋषि

वेद ऋषि 

वे जो भावों की नदियाँ बहाते हैं 

वे जो शब्दों की फसलें उगाते हैं 

बाड़ लगाते हैं विचारों की 

उन्हें कुछ मिला है 

शायद किसी बीज मंत्र सा 

जिसे बोकर वे बाँटना चाहते हैं 

कुछ पाया है जिसे लुटाना है 

माना कि वे बीजों के जानकार नहीं 

पर आनन्दग्राही हैं 

प्रेम को चखा है 

और रस से भरा है 

लबालब उनका अंतर 

वे अनायास ही आ गये  हैं 

उस घेरे में 

जहाँ मौन प्रखर हो जाता है 

और वहीं कोई कान्हा 

बंसी बजाता है !


रविवार, अप्रैल 20

घर इक मंज़िल

घर इक मंज़िल 

 इन वक्तों का यही तक़ाज़ा

 रहे ह्रदय का ख़्वाब अधूरा, 


बनी रहे मिलने की ख्वाहिश 

जज़्बा क़ायम कुछ पाने का !


है स्वयं पूर्ण, जगत अधूरा

मिथ्या स्वप्न, सत्य है पूरा, 

 

 क्षितिज कभी हाथों ना आता

चलता राही थक सो जाता !


 फूलों के दर्शन हो सकते

मंज़िल कहाँ मिलेगी मग में, 


लौट जरा अपने घर आना 

वहीं मिलेगा सरस ठिकाना !


शुक्रवार, अप्रैल 18

केंद्र और परिधि

केंद्र और परिधि 


परिधि पर ही खड़ा हो कोई 

तो याद केंद्र की

भूले-भटके ही आती है 

मिल जाये जीवन का केंद्र 

तो परिधि फैलती चली जाती है !


परिधि से केंद्र पर जाना 

ऐसा ही है 

जैसे सतह से तल तक जाना 

सागर से कुछ मोती-माणिक 

 पा लेना 

टूटे शंख व सीपियाँ ही 

मिलती हैं सतह पर !


केंद्र पर पहुँचा हुआ 

लौट नहीं सकता 

उसी परिधि पर 

जहाँ से चला था 

वह अनंत हो जाती है 

भीतर-बाहर हर सीमा 

खो जाती है !


मंगलवार, अप्रैल 15

खो गये वे शब्द सारे

खो गये वे शब्द सारे 


खो गये वे शब्द सारे 


नाव हम जिनकी बनाकर 

पहुँच जाते थे किनारे !


अब यहाँ लहरें व हम हैं 

डूबने में कहाँ  ग़म है, 

छू लिया जिसने तली को 

संस्तर हो गये बेगाने !


खो गये वह शब्द सारे 


नीड़ जिनसे हम बनाकर 

श्रम मिटाकर शरण धारे !


अब यहाँ विस्तृत गगन है 

उड़ें जिसमें यह लगन है, 

पा लिया जिसने फ़लक को 

नीड़ हो गये बेगाने !


खो गये वे शब्द सारे 


ढाल जिनकी हम बनाकर 

झेलते थे दंश सारे ! 


अब यहाँ केवल ख़ुशी है 

महकती सी ज़िंदगी है, 

पा लिया है तोष जिसने 

युद्ध हो गये बेगाने !


शनिवार, अप्रैल 12

तेरी चाहत ने दिल को

तेरी चाहत ने दिल को 


जो झुककर पाया हमने 

वह सुकूं कहाँ मिल सकता, 

 मूल तुझी से है जिसका

वह फूल कहाँ खिल सकता !


तेरी चाहत ने दिल को 

भरा रहमतों से ऐसे, 

भला तेरे बिन कब कोई 

फ़ितरत यह बदल सकता !


तू है तो यह दुनिया है 

तुझसे ही धड़कन दिल की, 

तू भीतर-बाहर हर सूँ 

अब जरा नहीं छिप सकता !




मंगलवार, अप्रैल 8

प्रेम

प्रेम 


प्रेम कहा नहीं जा सकता 

वैसे ही जैसे कोई 

महसूस नहीं कर सकता 

दूसरे की बाँह में होता दर्द 

हर अनुभव बन जाता है 

कुछ और ही 

जब कहा जाता है शब्दों में 

मौन की भाषा में ही 

व्यक्त होते हैं 

जीवन के गहरे रहस्य 

शांत होती चेतना 

अपने आप में पूर्ण है 

जैसे ही मुड़ती है बाहर 

अपूर्णता का दंश 

सहना होता है 

सब छोड़ कर ही 

जाया जा सकता है 

भीतर उस नीरव सन्नाटे में 

जहाँ दूसरा कोई नहीं 

किसी ने कहा है सच ही 

प्रेम गली अति सांकरी !


रविवार, अप्रैल 6

मौन की गूँज

मौन की गूँज 


सन्नाटा बहता जाता है 

नीरवता छायी है भीतर, 

खामोशी सी पसर रही है 

गूंज मौन गूँजे रह-रह कर !


तृप्ति सहज  धारा उतरी ज्यों 

सारा आलम भीग रहा है, 

ज्योति स्तंभ का परस सुकोमल 

हर अभाव को पूर रहा है !


चाहत की फसलें जो बढ़तीं 

काटीं किसने कौन बो रहा, 

जगत का यह प्रपंच सुहाना 

युग-युग से अनवरत चल रहा !


शुक्रवार, अप्रैल 4

भोर

भोर 


 

एक और सुबह 

लायी है अनंत संभावनाएँ 

उससे मिलने की 

अभीप्सा यदि तीव्र हो तो 

कृपा बरसती है अनायास 

खुल जाता है हर द्वार 

झरते हैं प्रकाश पुष्प हज़ार 

वही ज्योति बनेगी मार्गदर्शक 

जगमगा उठेगा कुछ ही देर में 

रवि किरणों से फ़लक 

जग जाएँगे वृक्ष, पर्वत, फूल सभी 

काली पड़ गई धूल सभी 

हर भोर उस सुबह की 

याद दिलाती है 

जिसमें जगकर आत्मा

 नयी हो जाती है !




मंगलवार, अप्रैल 1

अंतहीन सजगता

अंतहीन सजगता 


अपने में टिक रहना है योग  

योग में बने रहना समाधि 

सध जाये तो मुक्ति  

मुक्ति ही ख़ुद से मिलना है 

हृदय कमल का खिलना है 

क्योंकि ख़ुद से मिलकर  

उसे जान सकते हैं 

‘स्व’ से शुरू हुई यात्रा इस तरह 

‘पर’ में समाप्त होती  

पर थमती वहाँ भी नहीं 

जो अनंत है 

अज्ञेय है 

उसे जान 

कुछ भी तो नहीं जानते 

यही भान होता  

अध्यात्म की यात्रा में 

हर पल एक सोपान होता 

हर पल चढ़ना है 

सजग होके बढ़ना है 

कहीं कोई लक्ष्य नहीं 

कोई आश्रय भी नहीं 

अंतहीन सजगता ही

अध्यात्म है 

यही परम विश्राम है 

यहीं वह, तू और मैं का

 संगम है 

यहीं मिट जाता 

हर विभ्रम है !