सुरसरिता गंगा की धारा 
सुरसरिता गंगा की धारा 
उतरी नभ से छल-छल कल-कल 
तार दिये जाने कितने नर 
अनगिन उर कर डाले निर्मल !
बची राख न शेष कालिमा 
थी भीतर जो कलुष कामना 
धो डाली पुण्य सलिला ने 
कहीं दबी जो अशुभ भावना !
उस विराट के पावन नख से 
निःसृत हुई जलधार कृपा की 
बहा ले गयी सँग दोष सब 
मति शारदीय धवल चाँद सी !
धन्य धन्य ओ पावन सरिता 
धन्य धन्य ऋषियों की भूमि 
कभी जटा से कभी कमंडलु 
जग में फैली ज्ञान की उर्मि !
अनिता निहालानी 
२ मार्च २०११ 
आपकी प्रस्तुति सराहनीय व् सुन्दर है .अच्छे लेखन के लिए बधाई .
जवाब देंहटाएंजय हो माँ गंगा की ...जय हो ज्ञान गंगा माँ सरस्वती की ......जय हो गुरु कृपा की
जवाब देंहटाएंपावन रचना ......लेखनी प्रणम्य है
अनीता जी,
जवाब देंहटाएंगंगा की तरह ही पवित्र और निर्मल है ये पोस्ट.....बहुत सुन्दर|