जहाँ शून्य ही व्याप रहा था
एक खोज कबसे चलती है,
जिस पर जीवन वार दिया था
आपाधापी अब खलती है !
जन्मों से यह खेल चल रहा,
एक त्रिकोण सदा बन जाता
अंतर्मन को यूँही छल रहा !
पुरुषार्थ भी व्यर्थ हो गए,
कब तक बंधन रहे अटूट
जहाँ प्रेम के अर्थ खो गए !
शब्दों का आकर्षण त्यागा,
कब तक कैद रहेगा उनमें
आखिर मन का पंछी जागा !
जंजीरें स्वयं ही गढ़ लीं थीं,
जहाँ शून्य ही व्याप रहा था
वहाँ व्यथाएं क्यों पढ़ लीं थीं !
खुद को ही लिखते पढ़ते हैं,
दुनिया भर के शास्त्र बांच लें
नित निज के नियम गढ़ते है !
मन-पक्षी जग नाप रहा है ।
जवाब देंहटाएंक्रूर तमीचर भाँप रहा है ।
मौका मिलते ही चढ़ बैठा
शर सटीक दृढ़ चाप रहा है ।
अपना अपना धर्म निभाए-
आग जले जल-धार बहा है ।
नीति-नियम नट-नियति नचाये
सज्जन हरदम वार सहा है ।।
आप के ब्लॉग पर की गई
छंदमयी टिप्पणियों
का एक अपना ब्लॉग है ।
आपको कोई आपत्ति तो नहीं ।
dineshkidillagi.blogspot.com
नहीं, कोई आपत्ति नहीं, स्वागत और आभार!
हटाएंगीत में भी अद्भुत दर्शन। वाह!
जवाब देंहटाएंबहुत गहरी बात कह दी...
जवाब देंहटाएंखुद को ही लिखते पढ़ते हैं,
दुनिया भर के शास्त्र बांच लें
नित निज के नियम गढ़ते है !
बहुत खूब...
सुन्दर रचना!
जवाब देंहटाएं:)
जवाब देंहटाएंसच्चाई की रोशनी दिखाती आपकी बात हक़ीक़त बयान करती है।
जवाब देंहटाएंbahut sundar ...sarthak post .aabhar ...मिशन लन्दन ओलंपिक हॉकी गोल्ड
जवाब देंहटाएंजंजीरें स्वयं ही गढ़ लीं थीं,
जवाब देंहटाएंजहाँ शून्य ही व्याप रहा था
वहाँ व्यथाएं क्यों पढ़ लीं थीं !
आपकी सभी रचनाएँ जीवन दर्शन को कहती हैं ॥सुंदर प्रस्तुति
एक खोज कबसे चलती है,
जवाब देंहटाएंजिस पर जीवन वार दिया था
आपाधापी अब खलती है !
शुरुआत से ही बांध लेती है आपकी रचना .....
सुंदर विचार ...जीवन दर्शन ...
आभार अनीता जी ....
आज आपके ब्लॉग पर बहुत दिनों बाद आना हुआ. अल्प कालीन व्यस्तता के चलते मैं चाह कर भी आपकी रचनाएँ नहीं पढ़ पाया. व्यस्तता अभी बनी हुई है लेकिन मात्रा कम हो गयी है...:-)
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक रचना...बधाई स्वीकारें
नीरज
bahut sundar
जवाब देंहटाएंक्या यही लोकतंत्र है?
मनोज जी, अनुपमा पाठक जी, अनुपमा त्रिपाठी जी, देवेन्द्र जी, नीरज जी, शिखा व शालिनी जी, संगीता जी, अनुराग जी व अनु जी आप सभी का स्वागत व बहुत बहुत आभार!
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना....
जवाब देंहटाएंसादर.