जीवन की नदी 
सुख और दुःख के दो तटों के मध्य 
जीवन की नदी बहती है 
कभी उथली, कभी गंदली 
कभी दीपों, फूलों से भरी 
जाने कितने जीवन आए, चले गए 
वक्त के थपेडों में छले गए 
कभी कोई जीवन थम कर निहारता है खुद को 
तो सुख-दुःख के तटों पर नहीं उतरता अब 
बहता ही चला जाता है 
अनजान राहों पर.. अनंत की तलाश में 
वही पाता है कि
श्वास और मौन के तट उग आए हैं 
उसके दोनों और 
जिनके बीच मन की नदी बहती है...
(यह कविता मन की नदी का पूर्वार्ध है, पर यह बाद में
लिखा गया)
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समन्दर में समा जाने को आतुर मन की नदी.. अति सुन्दर रचना..
जवाब देंहटाएंअमृता जी, आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर अनीता जी।
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