सुख उपहार जागरण का है
सुख की चादर के पीछे ही
छुपे हुए हैं कंटक दुःख के,
लोभ किया आटे का जब-जब
फंस जाती मछली कांटे में !
स्वर्ग दिखाता, आस बंधाता
भरमाता जो अक्सर मन को
जब तक मन आतुर है सुख का
छल जाता है दुःख जीवन को !
सुख तो ऊपर-ऊपर होता
भीतर गहरे में इक दुःख है,
नाम इसी का जगत है जिसमें
सुख के नाम पे मिलता दुःख है !
कई रूप धर हमें लुभाता
बहुत मिलेगा सुख, कहता है,
एक बार जब फंस जाता मन
अहम् उसे चुप हो सहता है !
छोटी-छोटी भूलों पर भी
ना खुद को झुकने देता,
एक रेत का भवन खड़ा है
स्वयं ही कैसे गिरने देता !
कैसा माया जाल बिछा है
पीतल स्वर्ण का धोखा देता,
सुख उपहार जागरण का है
जो मंजिल पर ही जाकर होता !