खोल पंख नव इतराता है
मुक्त हुआ मन खो जाता है
अब वह हाथ कहाँ आता है,
अनथक जो वाचाल बना था
अब चुपचुप सा मुस्काता है !
प्रियतम का जो पता पा गया
अनजाने का संग भा गया,
छू आया अंतिम सीमा जो
खोल पंख नव इतराता है !
भांवर डाली जिसने पी संग
चूनर कोरी दी श्यामल रंग,
किसकी राह तके अब बैठा
गीत मिलन क्षण-क्षण गाता है !
सुधियाँ भी अब कहाँ सताती
चाह दूजे की नहीं रुलाती,
एक लहर उठती मन सागर
बस इक वही नजर आता है !
स्वप्न खो गये दूर गगन में
उड़ी कल्पना कहीं पवन में,
विकसित सरसिज एक अनोखा
उर उपवन को महकाता है !