राह देखता कोई भीतर 
बाहर धूप घनी हो कितनी 
घर में शीतल छाँव घनेरी,
ऊबड़-खाबड़ पथरीला मग
दे आमन्त्रण सदा वही  !
लहरें तट से टकरा घायल 
घर जा पुनः ऊर्जित होतीं,
मन लहरों सा सदा डोलता 
घर जाने की सुध न आती !
राह देखता कोई भीतर 
मीलों विस्तृत नीलगगन सा,
क्लांत बटोही पा जाये ज्यों 
चिर आश्रय सुखद बसेरा !
किंतु स्वप्न में खोया अंतर 
घर से दूर निकल आया है,
भूल-भुलैया में जगती की 
स्वयं ही स्वयं को भटकाया है !

स्वागत व बहुत बहुत आभार !
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