जो शेष रहा अपना होगा
वह बनकर बदली बरस रहा 
फिर चातक उर क्यों तरस रहा, 
ले जाये कोई बाँह थाम
गर उन चरणों का परस रहा !
जो लक्ष्य गढ़े थे विलीन हुए 
अब पत्तों सा ही उड़ना हो, 
जब डोर बंधी हो जीवन से 
फिर और कहाँ अब जुड़ना हो !
बिखरेगा हिम टुकड़ों सा मन 
कल कल निनाद कर बह जाए,
जो शेष रहा अपना होगा 
तब तक हर पीड़ा सह जाए !
नहीं आयोजन विचारों का 
ना भावों की अब माल बने,
संवाद घटे बस चुप रहकर 
ना शब्दों का अब जाल बुनें !

सुन्दर सृजन।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंशानदार ...
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबिखरेगा हिम टुकड़ों सा मन
जवाब देंहटाएंकल कल निनाद कर बह जाए,
जो शेष रहा अपना होगा
तब तक हर पीड़ा सह जाए !
बहुत सुन्दर।
स्वागत व आभार !
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