रात ढल चुकी है
होने को है भोर
प्रातःसमीरण में झूम रही हैं
पारिजात की डालियाँ
गा रहे हैं झींगुर अपना अंतिम राग
स्तब्ध खड़ा नीम का वृक्ष उनींदा है
अभी जागेगा
उषा की पहली किरण का स्वागत करने
घरों की खिड़कियाँ बंद हैं
सो रहे हैं अभी लोग
सुबह की मीठी नींद में
हजार मनों में चल रहे हजार स्वप्न
पंछी लेने लगे अंगड़ाई निज नीड़ों में
है अब जागने की बेला
देवता आकाश में और धरा पर प्रकृति
तत्पर हैं स्वागत करने एक दूसरे का
ब्रह्म मुहूर्त के इस क्षण में
रात्रि प्रलय के बाद
पुनः सृजित होगी सृष्टि
नव पुष्प खिलेंगे
नव निर्माण होगा पाकर नई दृष्टि !
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 14 सितंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार दिव्या जी !
हटाएंनव सृजन की प्रतीक्षा शायद अब खत्म होने को है।
जवाब देंहटाएंआपके मुँह में घी शक्कर !
हटाएंने निर्माण हो हर क्षण होता हिया प्रकृति में ... बीता लम्हा कभी नै अत ... बस निर्माण सतत है चाहे श्रृष्टि का या लम्हे का ...
जवाब देंहटाएंटाइपिंग में वर्तनी अशुद्ध हो गयी है
हटाएंशुभकामनाएं हिन्दी दिवस की।
जवाब देंहटाएंआपको भी !
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