ऐसे ही घट-घट में नटवर
अग्नि काष्ठ में, नीर अनिल में
प्रस्तर में मूरत इक सुंदर,
सुरभि पुष्प में रंग गगन में
ऐसे ही घट-घट में नटवर !
नर्तन कहाँ पृथक नर्तक से
हरीतिमा नंदन कानन से,
बसी चाँदनी राकापति में
ईश्वरत्व भी छुपा जगत में !
दीप की लौ में जो बसा है
वह प्रकाश चहुँ ओर बिखरता,
प्रेम, शांति, आनंद की ज्योति
उस से पाकर जगत सँवरता !
अनुभूति उसी मनभावन की
अंतर में विश्वास जगाती,
है कोई अपनों से अपना
शुभ स्मृति पल-पल राह दिखाती !
जगत की सत्ता जगतपति से
जिस दिन भीतर राज खुलेगा,
एक स्वप्न सा है प्रपंच यह
बरबस ही उर यही कहेगा !
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (2 -6-21) को "ऐसे ही घट-घट में नटवर"(चर्चा अंक 4084) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
बहुत बहुत आभार !
हटाएंसही कहा आपने। जीवन तो एक प्रपंच की तरह ही है असली सत्ता तो परमशक्ति के हाथ में है। इस मंच पर वो जैसे नचाता है, हम नाचते हैं।
जवाब देंहटाएंनर्तन कहाँ पृथक नर्तक से
जवाब देंहटाएंहरीतिमा नंदन कानन से,
बसी चाँदनी राकापति में
ईश्वरत्व भी छुपा जगत में ! वाह! सत्य का सार!!!
जगत की सत्ता जगतपति से
जवाब देंहटाएंजिस दिन भीतर राज खुलेगा,
एक स्वप्न सा है प्रपंच यह
बरबस ही उर यही कहेगा
वाह!!!!
जीव जगत का सत्य उजागर करती बहुत ही सारगर्भित रचना।
कण कण में ही तो व्याप्त है नटवर । भावों का सुंदर समायोजन ।।
जवाब देंहटाएंदीप की लौ में जो बसा है
जवाब देंहटाएंवह प्रकाश चहुँ ओर बिखरता,
प्रेम, शांति, आनंद की ज्योति
उस से पाकर जगत सँवरता !
वाह!बहुत ही खूबसूरत रचना! 🌹🌹🌹🌹🌹
बसे रहें मेरे मन नटवर
जवाब देंहटाएंयशवंत जी, विश्वमोहन जी, सुधा जी, संगीता जी, ओंकार जी, मनीषा जी व प्रवीण जी आप सभी सुधीजनों का हृदय से स्वागत व आभार!
जवाब देंहटाएंमन में आने वाले स्वप्न ,,, जो बीत जाते हैं वो स्वप्न फिर ये प्रपंच भी तो वास्तिवकता है ...
जवाब देंहटाएंजीवन स्वयं एक माया है स्वप्न है ... या सत्य ... किसी को क्या पता ...