टेर लगाती इक विहंगिनी
इन्द्रनील सा नभ नीरव है
लो अवसान हुआ दिनकर का,
इंगुर छाया पश्चिम में ज्यों
हो श्रृंगार सांध्य बाला का !
उडुगण छुपे हुए जो दिन भर
राहों पर दिप-दिप दमकेंगे,
तप्त हुई वसुधा इतरायी
शीतलता चंद्रमा देंगे !
उन्मीलित से सरसिज सर में
सूर्यमुखी भी ढलका सा है,
करे उपराम भास्कर दिन का
अमी गगन से छलका सा है !
कर-सम्पुट में भरे पुष्पदल
संध्या वन्द करें बालाएं,
कन्दुक खेलें बाल टोलियाँ
लौट रहीं वन से चर गाएं !
तिमिर घना ज्यों कुंतल काले
संध्या सुंदरी के चहुँ ओर,
टेर लगाती इक विहंगिनी
केंका करते लौटें मोर !