मंगलवार, दिसंबर 6

सुदूर कहीं ज्योति की नगरी

सुदूर कहीं ज्योति की नगरी 


झांक रहा कोई भीतर से 

भारी पर्दे क्यों लटकाए, 

बाहर अबद्ध  गगन बुलाता 

  पिंजरे में विहग घबराए !


विमुक्त करो मानस शक्ति को 

जो अनंत बन खिलना चाहे, 

संकरे पथ सीली धरा  को 

तज भूमा से मिलना चाहे !


वक्त बीतता जाता है अब 

पल भर भी की ना  देर करो, 

रस्ता दो उर की  नदिया को 

अब सिंधु मिलन की टेर भरो !


पलकों में सुख  स्वपन क़ैद हैं 

हृदय कमल भी सुप्त हैं अभी, 

सुदूर कहीं ज्योति की नगरी 

गहन तिमिर में पड़े हैं सभी !


अब राहों को खुद गढ़ना है 

नियति स्वयं  हाथों में लेकर, 

सोए-सोए युग बीते हैं 

स्वर्णिम पथ पर जाना जगकर !




12 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार (8-12-22} को "घर बनाना चाहिए"(चर्चा अंक 4624) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
    ------------
    कामिनी सिन्हा

    जवाब देंहटाएं
  2. पलकों में सुख स्वपन क़ैद हैं
    हृदय कमल भी सुप्त हैं अभी,
    सुदूर कहीं ज्योति की नगरी
    गहन तिमिर में पड़े हैं सभी !
    बहुत सुन्‍दर...........

    जवाब देंहटाएं
  3. आदरणीया अनीता जी ! नमस्कार !
    सुन्दर, छंदबद्ध एवं प्रेरित करती पंक्तियों के लिए बहुत अभिनन्दन !
    जय श्री कृष्ण !

    जवाब देंहटाएं
  4. पलकों में सुख स्वपन क़ैद हैं
    हृदय कमल भी सुप्त हैं अभी,
    सुदूर कहीं ज्योति की नगरी
    गहन तिमिर में पड़े हैं सभी !
    ...बहुत सुन्‍दर काव्य सौंदर्य ।

    जवाब देंहटाएं