सुदूर कहीं ज्योति की नगरी
झांक रहा कोई भीतर से
भारी पर्दे क्यों लटकाए,
बाहर अबद्ध गगन बुलाता
पिंजरे में विहग घबराए !
विमुक्त करो मानस शक्ति को
जो अनंत बन खिलना चाहे,
संकरे पथ सीली धरा को
तज भूमा से मिलना चाहे !
वक्त बीतता जाता है अब
पल भर भी की ना देर करो,
रस्ता दो उर की नदिया को
अब सिंधु मिलन की टेर भरो !
पलकों में सुख स्वपन क़ैद हैं
हृदय कमल भी सुप्त हैं अभी,
सुदूर कहीं ज्योति की नगरी
गहन तिमिर में पड़े हैं सभी !
अब राहों को खुद गढ़ना है
नियति स्वयं हाथों में लेकर,
सोए-सोए युग बीते हैं
स्वर्णिम पथ पर जाना जगकर !
बेहद खूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार भारती जी !
हटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार (8-12-22} को "घर बनाना चाहिए"(चर्चा अंक 4624) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
बहुत बहुत आभार कामिनी जी!
हटाएंपलकों में सुख स्वपन क़ैद हैं
जवाब देंहटाएंहृदय कमल भी सुप्त हैं अभी,
सुदूर कहीं ज्योति की नगरी
गहन तिमिर में पड़े हैं सभी !
बहुत सुन्दर...........
स्वागत व आभार
हटाएंआदरणीया अनीता जी ! नमस्कार !
जवाब देंहटाएंसुन्दर, छंदबद्ध एवं प्रेरित करती पंक्तियों के लिए बहुत अभिनन्दन !
जय श्री कृष्ण !
स्वागत व आभार!
हटाएंखूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंपलकों में सुख स्वपन क़ैद हैं
जवाब देंहटाएंहृदय कमल भी सुप्त हैं अभी,
सुदूर कहीं ज्योति की नगरी
गहन तिमिर में पड़े हैं सभी !
...बहुत सुन्दर काव्य सौंदर्य ।
स्वागत व आभार जिज्ञासा जी !
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