बुधवार, मई 31

जब

जब 

प्रेम एक आशीष सा 

झोली में आ गिरता है 

दिशाएँ गाने लगतीं 

कोहरे में छिपा लाल सूर्य का गोला 

अंकित हो जाता सदा के लिए 

मन के आकाश पर 

वृक्षों के तनों से सटकर बैठते

 ज़मीन की छुअन को 

महसूस करता तन 

फूलों की सुवास 

किसी नशीली गंध की तरह 

भीतर उतर जाती

वर्षा की प्रथम मोटी-मोटी बूदें 

जब पड़तीं सूखी धरा का ताप हरने 

ठहर जातीं कमल के पत्तों पर पारे की तरह 

लटकती डालियों से झूलते 

कभी घास पर लेटकर 

तकते घंटों आकाश को 

एकाकी कहाँ रहता है सफ़र जीवन का 

जो अस्तित्त्व को निज मीत बनाता है 

वृक्षों, फूलों, बादलों को 

नित क़रीब पाता है 

भावना में जीता वह

भावना को पीता है 

मौन में गूंजती हुई 

दिशाओं संग 

गुनगुनाता है 

अचल तन में घटता है नृत्य भीतर

निरख श्यामला धरा 

अंतर लहलहाता है 

उड़ता है हंसों के साथ 

मानसरोवर की पावनता में 

शांति की शिलाओं पर 

थिर हो आसन  जमाता है 

ज्ञान का सूर्य जगमगाता है 

निरभ्र निस्सीम आकाश सा उर 

बन जाता है ! 

 



गुरुवार, मई 25

है कोई अनुबंध अनकहा

है कोई अनुबंध अनकहा

अंक लिए संपूर्ण  सृष्टि को 
वह असीम यूँ डोल रहा है,
ह्रदय गुहा का वासी भी है 
निज रहस्य को खोल रहा है ! 

अंतरैक्य जब भी घटता है 
सिंधु बिंदु में झर-झर जाता,
अम्बर सा जो ढाँपे जग को 
लघु उर में वह अजर समाता !

अक्षत, अगरु, अग्नि स्फुलिंग सी  
ज्योति अखंड बिखेरे भीतर,
अनंत, अचल , अमरत्व , अदम्य 
भरे आस्था, प्रीत निरंतर ! 

अनुकंपित कण-कण को करता 
है कोई अनुबंध अनकहा,
रहे अगोचर कहने भर को 
हस्ताक्षर हर कहीं दिख रहा ! 

स्वयं अनुरक्त दृष्टि डालता 
सहस भुजाओं वाला कहते,
अनुरागी अंतर को मथता 
प्रेमिल अश्रु यूँ नहीं बहते ! 

शुक्रवार, मई 19

मुक्ति

मुक्ति 


स्मृति पटल पर अंकित 

हैं कुछ पल 

 कर याद जिन्हें होता अंतर सजल 

चिकित्सक ने उतारा पुराना 

और सरका दिया नूतन मल्टी फ़ोकल लेंस 

आँख के भीतर 

जिनमें भरा था द्रव 

और ऊपर तेज रोशनी थी 

टीवी पर देख रहे थे प्रियजन 

आपरेशन की सारी गतिविधि 

चंद मिनटों में ही ओटी से बाहर ले आये वे 

तब घंटों, दिनों व हफ़्तों में बाँटकर 

हुए सिलसिले आरम्भ बूँदें डालने के 

चढ़ाया चार दिन काला चश्मा  

फिर पारदर्शी बिना नंबर का 

दाहिनी के बाद 

बायीं आँख की बारी आयी 

इस तरह  बरसों बाद 

चश्मे से मुक्ति पायी ! 


बुधवार, मई 17

किताब ज़िंदगी की

किताब ज़िंदगी की 


मुस्कुराओ कि अभी ज़िंदा हो 

आख़िर किस बात पर शर्मिंदा हो 

हाथ थामा है जब उसने 

आगे बढ़कर, 

परवाज़ लगाओ

 मानो कोई परिंदा हो 

रूह तो क़ैद नहीं, उसकी सुनो 

अमन औ” चैन के नये ख़्वाब बुनो !

ज़िंदगी किताब कोरी सी 

हर रात हो जाती,  

हर सुबह नया इक नाम चुनो !

ओढ़ रखा है क्यों मायूसी का

 लबादा सिर पर 

जब डोर बांधी है जन्नतों से दिल की 

कोई सागर पास ही उफनता है 

नाच सकते हो जिसकी लहरों पर 

चाँद छूने का बस इक इरादा ही काफ़ी  

दिल की गहराइयों से जो निकला हो 

श्वासें न खर्च हों समेटते उदासियों को

जबकि हाथ कोई प्यार से सिर पर रखे  !