जब
प्रेम एक आशीष सा
झोली में आ गिरता है
दिशाएँ गाने लगतीं
कोहरे में छिपा लाल सूर्य का गोला
अंकित हो जाता सदा के लिए
मन के आकाश पर
वृक्षों के तनों से सटकर बैठते
ज़मीन की छुअन को
महसूस करता तन
फूलों की सुवास
किसी नशीली गंध की तरह
भीतर उतर जाती
वर्षा की प्रथम मोटी-मोटी बूदें
जब पड़तीं सूखी धरा का ताप हरने
ठहर जातीं कमल के पत्तों पर पारे की तरह
लटकती डालियों से झूलते
कभी घास पर लेटकर
तकते घंटों आकाश को
एकाकी कहाँ रहता है सफ़र जीवन का
जो अस्तित्त्व को निज मीत बनाता है
वृक्षों, फूलों, बादलों को
नित क़रीब पाता है
भावना में जीता वह
भावना को पीता है
मौन में गूंजती हुई
दिशाओं संग
गुनगुनाता है
अचल तन में घटता है नृत्य भीतर
निरख श्यामला धरा
अंतर लहलहाता है
उड़ता है हंसों के साथ
मानसरोवर की पावनता में
शांति की शिलाओं पर
थिर हो आसन जमाता है
ज्ञान का सूर्य जगमगाता है
निरभ्र निस्सीम आकाश सा उर
बन जाता है !