सोमवार, मार्च 4

पराधीनता

पराधीनता 


उस दिन वह बहुत रोयी थी, आँगन में बैठकर ज़ोर से आवाज़ निकालते हुए, जैसे कोई उसका दिल चीर कर ले जा रहा हो। शायद उसकी चीख में उन तमाम औरतों की आवाज़ भी मिली हुई थी जिन्हें सदियों से दबाया जाता रहा था। उनकी माएँ, दादियाँ, परदादियाँ और जानी-अनजानी दूर देशों की वे औरतें, जिन्हें अपने सपनों को जीने का हक़ नहीं दिया जाता है। उसने जिस पर इतना भरोसा किया था, जिसे अपना सर्वस्व माना था, जिसे ख़ुद को भुलाकर, टूटकर प्यार किया था। उसकी एक बात उसे किस कदर चुभ गई थी। जब उसने कहा था, यदि उसने उसकी इच्छा के विरुद्ध घर से बाहर कदम रखा तो वह उसे छोड़ कर चला जाएगा, इतना सुनते ही जैसे उसके सोचने समझने की शक्ति ही जाती रही थी। उसने यह भी नहीं सोचा, उसकी नौकरी है, घर है, बच्चा है, वह कैसे जा सकता है ? ये शब्द उसके मुख से निकले ही कैसे, बस यही बात उसे तीर की तरह चुभ रही थी।वह उसे चुप कराने भी आया, पर दर्द इतना बड़ा था कि समय ही उसका मलहम बन सकता था। कुछ देर बाद ही वह अपने आप ही शांत हो गई थी, उसके मन ने एक निर्णय ले लिया था, जैसे वह उसे छोड़ने की बात सोच सकता था, तो उसे भी अपना आश्रय कहीं और खोजना होगा, ईश्वर के अतिरिक्त कोई उसका आश्रय नहीं बन सकता था। शाम तक मन शांत हो गया और अगके दिन तक वह सामान्य भी हो गई थी, पर भीतर बहुत कुछ बदल चुका था। वह जो आँख बंद करके उसके पीछे चली जा रही थी, नियति ने उसे जैसे चौंका दिया था। उस दिन के बाद वह अपने भीतर देखने लगी, जहॉं मोह के जाल बहुत घने थे, जिन्हें उसे काटना था। उसने मन ही मन कहा, आज से मैंने भी तुम्हें मुक्त किया।पहले वह उसकी एक क्षण की चुप्पी से घबरा जाती थी, जैसे उसकी जान उसमें अटकी थी। अब उसे अपने पैरों पर खड़ा होना था, ये पैर बाहर नहीं थे, मन में थे।मन जो पहले उसका इतना आश्रित बन चुका था, उसे स्वयं पर निर्भर करना था। कोई भी संबंध तभी दुख का कारण बनता है जब दो में से कोई एक हद से ज़्यादा दूसरे पर आश्रित हो। वह जैसे उसकी आँख़ों से जगत को देखती आयी थी। उसकी अपनी कोई पहचान ही नहीं थी। उसका एकमात्र काम था, उसके इशारों पर चलना, और यह भूमिका उसने ख़ुद चुनी थी, अपने पूरे होश-हवास में, वह इसे प्रेम की पराकाष्ठा समझती थी। पर अब सब कुछ बदल रहा था, आज सोचती है तो उसे लगता है, उस दिन का वह रुदन उसके नये जीवन का हास्य बनाकर आया था। अब वह उसके बिना भी मुस्कुराना सीखने लगी थी। उनके मध्य कोई कटुता नहीं थी, शायद संबंध परिपक्व हो रहे थे। शायद वे बड़े हो रहे थे। अपनी ख़ुशी के लिए किसी और पर निर्भर रहना उसकी पराधीनता स्वीकारना ही तो है। इसे प्रेम का नाम देना कितनी बड़ी ग़लतफ़हमी है। उसने यह बात सीख ली थी और अब अपने लिए छोटे-छोटे ही सही कुछ निर्णय ख़ुद लेना सीख रही थी।   


17 टिप्‍पणियां:

  1. रोचक और प्रभावी कहानी
    बधाई

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  2. बहुत बहुत आभार यशोदा जी !

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  3. अन्तर द्वन्द का सुन्दर विश्लेषण - सुन्दर लघु कथा

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  4. प्रभावी एवं शिक्षाप्रद सृजन अनीता जी ! सादर नमस्कार!

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  5. वाह! शानदार सृजन अनीता जी ।

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  6. सही कहा अपने पैरों पर खड़ा होना.. ये बाहर से उतना मुश्किल नहीं जितना अंतरमन से है..और बस अंतर्मन से आत्मनिर्भर हो गए तो सुखी हुए वरना सब कुछ होकर भी दुखी ।

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    1. आपने शत प्रतिशत सही कहा है, कोई अंतर्मन से स्वयं पर निर्भर हो जाये तो कोई दूसरा उसे दुखी नहीं बना सकता

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  7. हम जिसपर भावनात्मक रूप से पूर्णतया समर्पित होते हैं उनके द्वारा किया गया कटु व्यवहार हमें इस कदर आहत कर जाता है हम या तो टूट जाते हैं या बदल जाते हैं।
    भावपूर्ण कहानी अनिता जी।
    सस्नेह।

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    1. हाँ, कुछ समय तक ऐसा लगता है पर प्रकृति एक माँ की तरह उस घड़ी में भी साथ होती है, भीतर की श्रद्धा हर टूटन से बचा ले जाती है और हर दुख हमें और मज़बूत कर देता है

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