सोमवार, नवंबर 1

मर कर जो जी उठा

मर कर जो जी उठा 


​​जीवन का मर्म खुला 

दूजा जब जन्म हुआ, 

मर कर जो जी उठा 

उसको ही भान हुआ !


मृत्यु का खटका सदा 

कदमों को रोकता, 

‘मैं हूँ’ कुछ बना रहूँ 

भाव यही टोकता !


पल-पल ही घट रही 

मृत्यु कहाँ दूर है, 

मन मारा, तन झरा 

जग का दस्तूर है !


दिल में रख आरजू 

जो खुद में खो  गया, 

पकड़ छोड़ अकड़ छोड़ 

रहे, वही जी गया !


जीवन कब सदा रहे 

त्याग का ही खेल है, 

इस क्षण जो जाग उठे

हुआ उससे  मेल है !

5 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (2-11-21) को "रहे साथ में शारदे, गौरी और गणेश" (चर्चा अंक 4235) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
    --
    कामिनी सिन्हा

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  2. सार्थक भावों वाला गहन सृजन।
    सुंदर।

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