मर कर जो जी उठा
जीवन का मर्म खुला
दूजा जब जन्म हुआ,
मर कर जो जी उठा
उसको ही भान हुआ !
मृत्यु का खटका सदा
कदमों को रोकता,
‘मैं हूँ’ कुछ बना रहूँ
भाव यही टोकता !
पल-पल ही घट रही
मृत्यु कहाँ दूर है,
मन मारा, तन झरा
जग का दस्तूर है !
दिल में रख आरजू
जो खुद में खो गया,
पकड़ छोड़ अकड़ छोड़
रहे, वही जी गया !
जीवन कब सदा रहे
त्याग का ही खेल है,
इस क्षण जो जाग उठे
हुआ उससे मेल है !
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (2-11-21) को "रहे साथ में शारदे, गौरी और गणेश" (चर्चा अंक 4235) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
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कामिनी सिन्हा
बहुत बहुत आभार!
हटाएंबहुत सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंसार्थक भावों वाला गहन सृजन।
जवाब देंहटाएंसुंदर।
बहुत सुंदर
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