युद्ध की विभीषिका
जो खेल सकते थे
रंगों की होली
वे खून की होली खेल रहे हैं
हथियारों और सत्ता मद में चूर कुछ लोग
उन्हीं को रौंदते जा रहे
जिन पर अपना दावा करते हैं
विनाश की यह दुर्दांत लीला
दोहरायी गयी है जाने कितनी बार
नफरत की आग में झुलसता रहा है हर बार प्यार
जब छिड़ा नहीं था युद्ध
उकसाया जाता रहा
परिणाम की परवाह किए बिना
जोशीले नारों को उछाला जाता रहा
रक्तरंजित हुई है धरा फिर एक बार
शांति की हर पहल हुई है नाकाबिल
एक सैनिक की मौत भी
धब्बा है मानवता के नाम
भुगतता पड़ेगा आने वाली पीढ़ियों को
जिसका अंजाम
अहिंसा, प्रेम और करुणा ने
जैसे आज हार मान ली है
तभी तो एक देश के हर आदमी ने
बंदूक़ थाम ली है !
युद्ध के दारुण दृश्यों ने मानवता को आज फिर से कटघरे में खड़ा कर दिया है। मार्मिक चित्रण।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार अमृता जी!
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