बुधवार, मई 15

उस सन्नाटे के पीछे तब

उस सन्नाटे के पीछे तब


जहाँ शब्द साथ न देते हों 

जब सूना-सूना अंबर हो, 

घन का कतरा भी नहीं एक   

जो ढक लेता है सूरज को !


उस ख़ालीपन को जो भर दें  

भावों का भी अभाव लगता, 

उस सन्नाटे के पीछे तब

जाकर उस अनाम से मिलना !


पीता कोई भर-भर प्याला

जीवन की मदिरा है बँटती,

खड़ा उजाला चंद कदम पर

हो रात अँधेरी कितनी भी !


सोमवार, मई 13

निर्मल बुद्ध चेतना लेकर


निर्मल बुद्ध चेतना लेकर
एक समन्दर विमल शांति का
एक बगीचा ज्यों पुष्पों का,
एक अनंत गगन सम विस्तृत
मौन एक पसरा मीलों का !

दिवस अवतरण का पावन है
बरसों पूर्व धरा पर आये,
निर्मल बुद्ध चेतना लेकर
भारत धरती पर मुस्काए !

शैशव काल से ही भक्ति का
बीज अंकुरित था अंतर में,
लाखों जन की पीड़ा हर लूँ
यह अंकित था कोमल उर में !

कड़ी तपस्या बरसों इस हित
सहज ध्यान में बैठे रहते,
जग को क्या अनमोल भेंट दूँ
इस धुन में ही खोये रहते !

ख़ुद कुछ पाना शेष नहीं था
तृप्त हुआ था कण-कण प्रभु से,
चिन्मय रूप गुरू का दमके
पोर-पोर भीगा था रस से !

परम क्रिया की कुंजी बाँटी 
राज दिया भीतर जाने का,
छुपा हुआ जो प्रेम हृदय में
मार्ग दिया उसको पाने का !

सद्गुरु को शत-शत प्रणाम हैं
कृपा बरसती है नयनों से,
शब्द अल्प हैं क्या कह सकते
तृप्ति झरे सुंदर बयनों से !

लाख जन्म लेकर भी शायद
नहीं उऋण हो सकता साधक,
गुरू की इक दृष्टि ही जिसको
करती पावन जैसे पावक !



शुक्रवार, मई 10

कुछ दिन गुजरात में - ४

कुछ दिन गुजरात में - ४ अंतिम भाग



भुज

टाइम्स स्क्वायर 

हमारा अगला कार्यक्रम कच्छ रण महोत्सव में सम्मिलित होना है। कच्छ का रण अथवा रेगिस्तान गुजरात के कच्छ ज़िले के उत्तर-पूर्व में फैला एक लवणीय वीरान स्थान है। भूचाल के कारण संभवत: यह समुद्र से पृथक हो गया होगा। कच्छ जाने के लिए निकटतम स्थान भुज है। द्वारिका से भुज जाने के लिए आज सुबह आठ बजे रवाना हुए। मालवा होते हुए जामनगर पहुँचे, जहां विश्व की सबसे बड़ी तेल रिफ़ाइनरी है। ‘बाला हनुमान मंदिर’ में हनुमान जी के दर्शन किए। मंदिर में  “श्री राम, जय राम, जय जय राम” का जाप चल रहा था, बताया गया, १ अगस्त १९६४ को इसका जाप शुरू हुआ था और तब से दिन-रात निरंतर यह जाप चल रहा है। इसके सामने ही रणमल झील तथा एक सुंदर महल की इमारत है। हज़ारों की संख्या में लैपविंग पक्षी सड़क किनारे बैठे हुए थे, जो अचानक एक साथ उड़ान भरते थे और फिर सड़क पार कर एक साथ बैठ जाते थे। यह एक अविस्मरणीय दृश्य था। 




शाम को हम ‘वन्दे मातरम् मेमोरियल’ देखने गये, जिसकी आकृति भारतीय संसद भवन के समान बनायी गई है । जो भुज से दस किमी दूर है। इस अनोखे राष्ट्रीय स्मारक में स्वतंत्रता संग्राम तथा महात्मा गांधी के जीवन से जुड़े अनेक चित्र व वस्तुएँ सहेजी गई हैं। पूरा वातावरण अत्यंत सुंदर व आनंददायक है। बाग-बगीचे, विशाल मूर्तियाँ और संग्रहालय इसे दर्शनीय बनाते हैं। रात्रि में एक ‘लाइट एंड साउंड शो’ भी वहाँ होता है। जिसे देखकर पर्यटकों के भीतर राष्ट्रीय गौरव तथा देशप्रेम की भावना जागती है। हम ‘स्वामी नारायण मंदिर’ देखने भी गये, पर भुज धाम पहुँच गये। जहाँ अनेक देवी देवताओं की आकर्षक मूर्तियाँ रखी हुई थीं, कीर्तन चल रहा था, कुछ महिलाएँ प्रसाद बना रही थीं। 



कच्छ 

टेंट सिटी 

आज गणतंत्र दिवस है। सुबह पुत्र और पुत्रवधू भी मुंबई से आ गये। कल रात पौने दो बजे वे बैंगलुरु से मुंबई पहुँचे थे। रिजार्ट में गणतंत्र दिवस का समारोह मनाया गया। सभी अतिथियों को आमंत्रित किया गया था। जब हम आयोजन स्थल पर पहुँचे, होटल के सभी कर्मचारी पंक्तिबद्ध खड़े थे। झंडा आरोहण के बाद बूँदी के लड्डुओं का प्रसाद भी बाँटा गया। पौने ग्यारह बजे हम सब धोरडो टेंट सिटी, रण, कच्छ के लिए रवाना हुए। लगभग दो घंटे में हम निर्धारित स्थान पर पहुँच गये। सबसे पहले महिला गाइड द्वारा हमें वहाँ की गतिविधियों से अवगत कराया गया। 



यहाँ चारों और चहल-पहल है। सुंदर भवन, साफ़-सुथरी सड़कें और जगह-जगह भव्य झांकियाँ सजायी गई हैं। लोक कलाकृतियाँ सभी का मन मोह रही हैं। कच्छ के वस्त्रों व अन्य कलात्मक वस्तुओं की दुकानें हैं। पूरे क्षेत्र को चौदह भागों में बाँटा गया है। जहां एसी और नॉन एसी आधुनिक टेंट लगे हैं, जिनमें सभी सुविधाएँ मौजूद हैं। एक गोलाकर आकृति में वे टेंट लगाये गये हैं तथा मध्य में विशाल ख़ाली मैदान है, जिसे हरे रंग की चादर से ढक दिया गया है, जो दूर से हरी घास का आभास दिलाता है । एक विशाल प्रांगण में सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए स्टेज बना है, जहां शास्त्रीय और लोक, दोनों प्रकार की कलाओं का प्रदर्शन किया जाता है। एक विशाल टेंट में डाइनिंग हॉल है, हमने सैकड़ों अन्य पर्यटकों के साथ दोपहर का स्वादिष्ट, विशिष्ट गुजराती भोजन ग्रहण किया।आकर्षक दुकानें जैसे अपनी ओर बुला रही थीं, कुछ देर घूमकर उनका जायज़ा लिया, फिर अजरख के वस्त्र, एक पेंटिंग, रण उत्सव को दर्शाती रंगीन टीशर्ट्स आदि ख़रीदे। कुछ देर विश्राम करने के बाद हम रण उत्सव के आयोजकों की बस द्वारा व्हाइट रण तक पहुँचे, जहां से ऊँट गाड़ियों द्वारा और आगे ले जाये गये। वहाँ मीलों दूर तक तक केवल श्वेत मैदान ही नज़र आता है। हम आगे बढ़ते रहे और लगभग दो घंटे नमक के उस सफ़ेद मैदान पर टहलने के बाद वापस आ गये। रात्रि भोजन व सांस्कृतिक कार्यक्रम देखने के बाद पुन: व्हाइट रण ले जाया गया, जहां पूर्णिमा के चाँद के प्रकाश में नमक के मैदान दूधिया आभा बिखेर रहे थे। हमने मध्य रात्रि तक वहाँ अविस्मरणीय समय बिताया और अब वापस अपने निवास लौट आये हैं। 



रण महोत्सव के आयोजकों द्वारा आज सुबह साढ़े छह बजे योग साधना करवायी गई। आसन, प्राणायाम, ध्यान में एक घंटा कैसे बीत गया पता ही नहीं चला। आकाश में चंद्र देव  सुशोभित हो रहे थे और हवा शीतल थी, ऐसे में दो योग शिक्षकों ने योग कक्षा को निर्देशित किया। नाश्ते के बाद हम धौलावीरा  के लिए रवाना हो गये। मार्ग में व्हाइट रण के एक अन्य केंद्र पर पैराग्लाइडिंग का आनंद उठाया। ज़मीन से दो सौ मीटर ऊपर हवा बहुत ठंडी थी, ऊँचाई से दूर-दूर तक श्वेत मैदान को निहारते हुए आकाश में उड़ने अथवा तैरने का यह प्रथम अनुभव था। धौलावीरा के मार्ग में सड़क नमक की एक झील के मध्य से गुजरती है। अति विशाल लवणीय झील में पक्षी भी दिखे। बीच-बीच में पानी कम हो गया था, नमक के खेत बन गये थ, जिन पर लोग चहलक़दमी कर रहे थे। एक ऊँट वाला भी था, जिस पर चढ़कर लोग तस्वीरें खिंचवा रहे थे। 


धोलावीरा में सिंधु घाटी की सभ्यता के अवशेष तथा खंडहर मिलते हैं।भारत स्थित हड़प्पा सभ्यता के अवशेष धौलावीरा में गाइड ने कई महत्वपूर्ण स्थान दिखाये। पाँच हज़ार साल पुरानी इस सभ्यता में किस तरह नगरों का निर्माण किया जाता था, जिनमें पानी का संरक्षण किस तरह किया जाता था, आदि का वर्णन किया।वे स्थान भी दिखाए, जहां नहरों से आया पानी स्वच्छ होकर जमा होता था। नगर की नालियाँ ढकी हुई थीं। कुँए थे, जिनमें सीढ़ियाँ बनी थीं। देखकर बहुत आश्चर्य हुआ तथा गर्व भी कि हम उसी सभ्यता के वंशधर हैं। शाम सवा छह बजे हम अंजर पहुँच गये हैं।यहाँ इस होटल में हमें एक रात बितानी है। कल सुबह वापसी की यात्रा आरंभ होगी। मुंबई होते हुए कल देर रात हम बैंगलोर पहुँच जाएँगे। 


गुरुवार, मई 9

कुछ दिन गुजरात में - ३

कुछ दिन गुजरात में - ३


द्वारिका 


आज हमें कृष्ण की नगरी द्वारिका में जाना है। जो चार धामों में से एक है और सप्त पुरियों में भी सम्मिलित है।इसे स्वयं कृष्ण ने बसाया है, जो आज भी अमूर्त रूप में यहाँ विद्यमान हैं। कृष्ण जिन्हें जो जिस भाव से भजता है, वह उससे उसी भाव से मिलते हैं। राम और कृष्ण इस इस भारत भूमि के दो ऐसे रत्न हैं, जो अपने प्रकाश से युगों से उसे दीप्तिमान कर रहे हैं।जो अनेक हृदयों के सम्राट हैं। जो उनके भीतर कला के सृजन की प्रेरणा देते हैं। समाज में समता को बढ़ाने, सद्भाव का प्रसार करने की प्रेरणा देते हैं। संतों और ज्ञानियों की भूमि की सनातन और अनुपम संस्कृति की नदी के जैसे वे दो तट हैं। जिसका स्रोत अदिति हैं, आदि शक्ति हैं। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति हेतु, अंत:करण की शुद्धि के लिए, चार वर्णों और चार आश्रमों की शुद्धता बनाये रखने के लिए जब ईश्वर अवतार लेते हैं।वे आनंद और शांति का प्रसार करते हैं। 


हरि हर को नित ही भजते हैं, हर के मन में हरि बसते हैं 

अद्भुत है यह प्रेम की गाथा, दोनों जहां निमग्न रहते हैं


कल सुबह साढ़े नौ बजे हम सोमनाथ से द्वारिका के लिए रवाना हुए थे। मार्ग में पड़ने वाले ‘माधव समुद्र तट’ पर कुछ देर के लिए रुके। कुछ छोटी-बड़ी लड़कियाँ शंख-सीपियाँ  बीच रही थीं।कुछ ऊँट वाले सजे-सजाये ऊँटों पर बैठकर तस्वीर खिंचाने और घुमाने का आग्रह कर रहे थे। सागर की नीली लहरें एक लय में बद्ध अठखेलियाँ कर रही थीं। सूरज तप रहा था, इसलिए हम ज़्यादा देर वहाँ नहीं रुके। इसके बाद हम बापू के जन्मस्थान पोरबंदर में कीर्ति मंदिर में जाने के लिए रुके।  उनका पुश्तैनी मकान देखा। जिस कमरे में गांधी जी का जन्म हुआ था, उसे वैसे ही रखा गया है। मकान के दरवाज़े बहुत छोटे-छोटे थे और खिड़कियाँ भी। अनेक कक्षों में उनके जीवन की छोटी-बड़ी अनेक घटनाओं को दर्शाते हुए चित्र लगाये गये हैं। उनके जीवन वृत्त को दीवार पर लिखा गया है। उनके परिवार का वंशवृक्ष भी आकर्षित कर रहा था।होटल पहुँच कर हमने द्वारिकाधीश मंदिर के बारे में जानकारी ली। ज्ञात हुआ, यहाँ से निकट ही इस्कॉन का बड़ा सा द्वार है, उसमें से होकर मंदिर जाना है। मंदिर शाम को पाँच बजे खुलेगा, दोपहर को साढ़े बारह बजे बंद हो जाता है। हमारे पास पूरा दिन है इसलिए शाम को दर्शन करने का निर्णय लिया। 


शाम को पाँच बजे पैदल चलते हुए मंदिर के निकट पहुँचे तो लोगों का एक बड़ा हुजूम वहाँ लगा हुआ था। मोबाइल और घड़ी जमा करानी थी। जूता स्टैंड पर जूते जमा करवा के हम पंक्तियों में लग गये, जो बहुत ही धीमी गति से आगे बढ़ रही थीं। आधे घंटे से भी अधिक देर तक पंक्ति में खड़े रहने के बाद हम उस स्थान पर पहुँचे, जहां से दूर से दर्शन किए जा सकते थे। इसी प्रांगण में और भी कई मंदिर थे पर लोग वहाँ नहीं जा रहे थे। लोगों की आस्था के लिए कोई तर्क नहीं दिया जा सकता। दूर से दर्शन करके हम एक-एक करके अन्य मंदिर देखकर गोमती घाट पर आ गये, जहां सूर्यास्त का सुंदर दृश्य हमें अपनी ओर खींच रहा था। एक वृद्ध महिला दीपदान करने के लिए घी युक्त दिये बेच रही थी। कई विशालकाय बैल या साँड़ वहाँ घूम रहे थे, जिनके बड़े कूबड़ निकले हुए थे। सागर की विशालता और लहरों का नृत्य किसे नहीं मोह लेता। कुछ देर संध्या के आलोक में भीगने के बाद वापस होटल लौट आये। होटल के भोजनकक्ष में मंदिर से सीधा प्रसारण किया जा रहा था, जिन्हें दर्शन नहीं हो पाये थे, वे अतिथि वहीं बैठकर आराम से दर्शन कर सकते थे।



बेट द्वारिका 


आज सुबह नाश्ते के बाद लगभग नौ बजे हम बेट द्वारिका जाने के लिए ओखा स्थित फेरी अड्डे पर आये। आने-जाने की टिकट लेकर फेरी पर बैठ गये।जिसमें बैठने के लिए लोग लगातार आते जा रहे थे, नाव के मध्य में जीवन रक्षक जैकेट्स का ढेर लगा था। श्वेत समुद्री पंछियों के झुंड ऊपर मंडरा रहे थे, लोग उन्हें लाई/मूड़ी  खिला रहा थे। जब सौ से भी अधिक लोग नौका में भर गये, तो पंद्रह मिनट में ही हम उस द्वीप पर पहुँच गये जहां बेट द्वारिका मंदिर है।तट पर पहुँच कर एक ऑटो लिया जिसका चालक एक किशोर था। पहले वह मुख्य मन्दिर में ले गया, वहाँ भी मोबाइल जमा करना था। लंबी लाइन लगी थी और लोग बढ़ते ही जा रहे थे। किंतु मंदिर के आयोजकों ने पंक्तिबद्ध करके धीरे-धीरे लोगों को भेजना आरम्भ किया। दर्शन के बाद सभी को एक कमरे में ले जाकर बैठाया गया।पुजारी के अनुसार उसी स्थान पर सुदामा की कृष्ण से भेंट हुई थी।वहाँ चावल चढ़ाये जाते हैं और प्रसाद में भी कच्चे चावल ही मिलते हैं। कृष्ण-सुदामा की कथा को हज़ारों वर्षों से वहाँ जीवित रखा गया है। इसके बाद हमने कुछ अन्य मंदिर, सोने की द्वारिका आदि तीर्थस्थान देखे। इसके बाद ऑटो वाला ‘मकर ध्वज मंदिर’ ले गया जहां हनुमान जी के दर्शन किए। रास्ता निर्जन गावों से होकर जाता था। इसके आगे ‘आशापुरा  मंदिर’ में देवी के दर्शन किए । ऊँची-नीची भीड़ भरी गलियों से होते हुए वापस फेरी घाट पर आ गये। वापसी की यात्रा में भीड़ पहले से भी अधिक थी। धूप भी तेज हो गई थी। ओखा में उतरकर रुक्मणी मंदिर तथा गोपी तालाब के दर्शन किए। वहीं स्वादिष्ट गुजराती थाली लेकर दोपहर का भोजन किया। तत्पश्चात् बारह ज्योतिर्लिंगों में एक भव्य नागेश्वर मंदिर के दर्शन हेतु गये। शिव की एक विशाल प्रतिमा मन्दिर के प्रवेश द्वार से कुछ आगे ही स्थित है। तीन बजे तक वापस होटल लौट आये। संध्या के समय ‘शिवराजपुर समुद्र तट’ पर दो घंटे बिताये। सूर्यास्त देखा, तस्वीरें उतारीं। कल हमें भुज जाना है। 




मंगलवार, मई 7

सदा रहे उपलब्ध वही मन

सदा रहे उपलब्ध वही मन 


यादों का इक बोझ उठाये 

मन धीरे-धीरे बढ़ता है, 

भय आने वाले कल का भर 

ऊँचे वृक्षों पर चढ़ता है !


वृक्ष विचारों के ही गढ़ता

भीति भी केवल एक विचार, 

ख़ुद ही ख़ुद को रहे डराता 

ख़ुद ही हल ढूँढा करता है !


कोरा, निर्दोष, सहज, सुंदर 

ऐसा इक मन लेकर आये, 

जीवन की आपाधापी में 

कहाँ खो गया, कौन बताये ?


पुन: उसको हासिल करना है 

शिशु सा फिर विमुक्त हँसना है, 

फूलों, तितली के रंगों को 

बालक सा दिल से तकना है !


आदर्शों को नव किशोर सा 

जीवन में प्रश्रय देना है, 

युवा हुआ मन प्रगति मार्ग पर 

ले जाये, संबल देना है !


इर्दगिर्द  लोगों की पीड़ा 

प्रौढ़ हुआ मन हर ले जाये,

वृद्ध बना मन आशीषों से 

सारे जग को भरे, हँसाये !


वर्तमान में रहना सीखे 

ऐसा ही मन मिट सकता है, 

सदा रहे उपलब्ध वही मन 

इस जग में कुछ कर सकता है !


रविवार, मई 5

प्रेम

प्रेम 


जिस पर फूल नहीं खिल रहे थे 

उसने उस वृक्ष को 

पास जाकर ऐसे छुआ 

जैसे कोई अपनों को छूता है 

और अचानक कोई हलचल हुई 

पेड़ सुन रहा था 

चेतना हर जगह है 

आकाश में तिरते गुलाबी बादलों  

और लहराती पवन में भी 

 प्रकट हो जाती है 

एक नई दुनिया ! 

जब विस्मय से भर जाता है मन

जैसे कदम-कदम पर कोई 

मंदिर बनता जा रहा हो 

और हर शै उसमें रखी मूरत 

कभी सुख-दुख बनकर 

जिसने हँसाया-रुलाया था 

  शाश्वत बन जाता है वही मन

इतना कठोर न बने यदि 

कि प्रेम भीतर ही भीतर 

घुमड़ता रह जाये 

बंद गलियों में उसकी 

और न इतना महान 

कि प्रेम मिले किसी का 

तो अस्वीकार कर दे 

प्रेम जीवंत है 

वही बदल रहा है 

सागर की लहरों की तरह 

वही यात्री है वही मंज़िल भी !


शुक्रवार, मई 3

संबंध

संबंध 


यह जगत एक आईना है ही तो है 

हर रिश्ते में ख़ुद को देखे जाते हैं  

चुकती नहीं अनंत चेतना 

हज़ार-हज़ार पहलू उभर जाते हैं 

जन्म पर जन्म लेता है मानव 

कि कभी तो जान लेगा सम्पूर्ण 

ख़ुद को 

पर ऐसा होता नहीं 

जब तक अनंत को भी 

अनंतता का दीदार नहीं हो जाता 

तब तक बनाता रहता है संबंध 

विचारों, भावों, मान्यताओं 

और व्यक्तियों से 

वस्तुओं, जगहों, मूर्त और अमूर्त से 

यदि प्यार बाँटता है निर्विरोध 

तो भीतर सुकून रहता है 

रुकावट है यदि किसी भी रिश्ते में 

तो ख़ुद का ही दम घुटता है !




बुधवार, मई 1

मई दिवस पर

मई दिवस पर 


दुनिया बंट गई जब से 

मज़दूर और मालिक में 

बंदे और ख़ालिक में 

शोषित और शोषक 

तब से ही आये हैं अस्तित्त्व में 

पर अब समय बदल रहा है 

श्रमिक भी सम्मानित किए जाते हैं 

सफ़ाई कर्मचारियों के पैर 

पखारे जाते हैं 

आगे की पंक्तियों में स्थान मिलता है 

श्रमिकों को सभाओं में 

श्रम की महत्ता को हम स्वीकारने लगे हैं 

मज़दूर दिवस पर लग रहे हैं नये नारे 

दुनिया के सब लोगों एक हो जाओ

एक तरह से यहाँ सभी श्रमिक हैं 

श्रम के बिना यहाँ कुछ भी नहीं मिलता है 

हाँ, श्रम शारीरिक, मानसिक

या बौद्धिक हो सकता है 

घंटों कंप्यूटर स्क्रीन के सामने बैठे 

युवा भी श्रमिकों की श्रेणी में आ सकते हैं
रेढ़ी-पटरी वाले और उनको 

ऋण देने वाले बैंक के कर्मचारी 

 दोनों ही समाज का काम करते हैं 

श्रम करते हैं खिलाड़ी 

देश का नाम होता है 

चींटी भी कम श्रम नहीं करती 

घर बनाने और जमा करने में भोजन 

बोझ केवल आदमी ही नहीं उठाता 

पशु भी भागीदार हैं युगों से 

नन्हा शिशु भी पालने में पड़ा -पड़ा 

हाथ पैर मारता है 

श्रम की महत्ता 

प्रकृति का हर कण सिखलाता है ! 


सोमवार, अप्रैल 29

मनुज प्रकृति से दूर गया है

मनुज प्रकृति से दूर गया है 


वृक्षों के आवाहन पर ही 

मेघा आकर पानी देते, 

कंकरीट के जंगल आख़िर 

कैसे उन्हें बुलावा दे दें ! 


सूना सा नभ तपती वसुधा 

शुष्क हुई हैं झीलें सारी, 

 कहाँ उड़ गये प्यासे पंछी

 तोड़ रही है दम हरियाली !


खलिहानों में प्लॉट कट रहे

माँ सी धरती बिकती जाती, 

अन्नपूर्णा जीवन दायिनी 

उसकी क़ीमत आज लगा दी !


बेच-बेच कर भरी तिजोरी 

जल आँखों का सूख गया है,

पत्थर जैसा दिल कर डाला 

मनुज प्रकृति से दूर गया है !


जगे पुकार भूमि अंतर से 

प्रलय मचा देगा सूरज यह, 

अंश उसी का है यह धरती 

लाखों वर्ष लगे बनने में !


जहां उगा करती थी फसलें 

कितने जीव जहां बसते थे, 

सीमेंट बिछा, लौह भर दिया 

मानो कब्र खोद दी सबकी ! 


हरे-भरे वृक्षों को काटा 

डामर की सड़कें बिछवायीं, 

मानव की लिप्सा सुरसा सी 

पर चतुराई काम न आयी !


बेबस  किया आज कुदरत ने

 तपती सड़कों पर चलने को, 

लू के दंश झेलता मानव 

मान लिया मृत जीवित भू को !


अब भी थमे विनाश का खेल 

जो शेष है उसे सम्भालें, 

पेड़ उगायें उर्वर भू पर 

पूर्वजों की राह अपनायें !


एक शाख़ लेने से पहले 

पूछा करते थे पेड़ों से, 

अब निर्जीव समझ कर हम तो 

कटवा देते हैं आरी से !


क्रोध, घृणा, लालच के दानव 

समरसता को तोड़ रहे जब,

छल-छल, रिमझिम की प्यारी धुन 

सुनने को आतुर हैं जंगल!