गुरुवार, सितंबर 30
बुधवार, सितंबर 29
जीवन
जीवन
जीवन एक सुनहरा अवसर !
मन अपना ब्रह्म सा फैले
ज्यों बूंद बने सागर अपार
नव कलिका से फुल्ल कुसुम
क्षुद्र बीज बने वृक्ष विशाल I
जीवन एक अनोखा अवसर !
मन यदि अमन बना सुध भूले
खो जाएं बूंदें सागर में
रूप बदल जाए कलिका का
मिट कर बीज मिलें माटी में I
जीवन एक आखिरी अवसर !
लेकिन हम ना मिटना चाहें
मन के गीत सदा दोहराएँ
हम ‘हम’ होकर ही जग में
क्योंकर आसमान छू पाएँ I
जीवन एक पहेली जैसा !
हो जाएँ यदि रिक्त स्वयं से
बूंद बहेगी बन के सरिता
स्वप्न सुप्त कलिका खिलने का
पनपेगा फिर बीज अनछुआ
जीवन यही संदेश दे रहा !
अनिता निहालानी
२९ सितम्बर २०१०
मंगलवार, सितंबर 28
जीवन पल-पल यही सिखाये
जीवन पल-पल यही सिखाये
छोटी-छोटी बातों से जब,
दीवाना यह दिल अकुलाया,
उलझी अनगढ़ी भाषा को न
बूझ कोई स्वजन भी पाया !
इधर टटोला उधर निहारा,
समाधान इसका कब पाया,
आतुर हो फिर देखा भीतर
जहाँ किसी को हँसते पाया !
जिसका होना ही सत्य यहाँ ,
शेष यहाँ सारी भ्रम माया ,
जीवन पल-पल यही सिखाये,
व्यर्थ ह्रदय सपने बुन आया !
जरा ठहर जब जाँचा परखा,
सारे सपने निकले झूठे,
जिनमें कोई सार नहीं था,
लगे ह्रदय को वही अनूठे !
स्वयं ही उर कामना गढ़ता,
रंग अनोखे उसमें भरता,
रही अपूर्ण यदि किसी कारण
व्यर्थ स्वयं को घायल करता !
कुछ बन जाये , कुछ यश पाये
सुख, सुनाम कुछ यहाँ कमाये
इसी तरह के और स्वप्न भी,
भाग्य अतीव महान बनाये !
जब भी भीतर जाकर देखा,
सोया मिला क्षीरसागर में,
हर्षित,पुलकित पाया उसको
सुखमय परम योगनिद्रा में !
सोमवार, सितंबर 27
मैं कौन हूँ
मैं कौन हूँ
एक चेतना ! चिंगारी हूँ
एक ऊर्जा सदा बहे जो,
सत्य एक धर रूप हजारों
परम सत्य के संग रहे जो !
अविरत गतिमय ज्योतिपुंज हूँ
निर्बाधित संगीत अनोखा,
सहज प्रेम की निर्मल धारा
पावनी शांति पुहुप सरीखा !
चट्टानों सा अडिग धैर्य हूँ
कल-कल मर्मर ध्वनि अति कोमल,
मुक्त हास्य नव शिशु अधरों का
श्रद्धा परम अटूट निराली !
अन्तरिक्ष भी शरमा जाये
ऐसी ऊँची इक उड़ान हूँ,
पल में नापे ब्रह्मांडों को
त्वरा युक्त इक महायान हूँ !
एक शाश्वत सतत् प्रवाह जो
शिखरों चढ़ा घाटियों उतरा,
पाया है समतल जिसने अब
सहज रूप है जिसका बिखरा !
अनिता निहालानी
२७ सितम्बर २०१०
शुक्रवार, सितंबर 24
tum
Tum
Tum har pal mujhe bulate ho !
Jag se jis pal khaya dhokha
Jab jab dil ne khayi thokar
Tum hi pida rup me milte
Sach ki jhalak dikhate ho !
Jinko mana hamne apna
Chhl karte ve hi jivan se
Aadhar banaya tha jinko
Nikle jhuthe ve sb sapne
Chhl karta jag man rota hai
Kehte tum gafil sota hai
Jagne ki bela aayi hai
Ashru dekar samjhate ho
Pida bhi tum vardan tumhi
Sab jal bichaya hai tumne
Jivan ka bhed kholane ko
Vairag ka path pdhate ho
Bhitar jo dard utha gahra
Vah pida se hi upja tha
Tute asha ki dor tabhi
Tum aise khel rchate ho
Anita nihalani
Tum har pal mujhe bulate ho !
Jag se jis pal khaya dhokha
Jab jab dil ne khayi thokar
Tum hi pida rup me milte
Sach ki jhalak dikhate ho !
Jinko mana hamne apna
Chhl karte ve hi jivan se
Aadhar banaya tha jinko
Nikle jhuthe ve sb sapne
Chhl karta jag man rota hai
Kehte tum gafil sota hai
Jagne ki bela aayi hai
Ashru dekar samjhate ho
Pida bhi tum vardan tumhi
Sab jal bichaya hai tumne
Jivan ka bhed kholane ko
Vairag ka path pdhate ho
Bhitar jo dard utha gahra
Vah pida se hi upja tha
Tute asha ki dor tabhi
Tum aise khel rchate ho
Anita nihalani
गुरुवार, सितंबर 23
मिल गयी चाबी
मिल गयी चाबी
रात अँधेरी और घनेरी, घर का रस्ता भूल गया वह
दूर कहीं से ध्वनि भयानक, भटक रहा भयभीत हुआ वह I
टप टप बूंदें, पवन जोर से, ठंड हड्डियों को थी कंपाती
तभी अचानक बिजली चमकी, घर का द्वार पड़ा दिखाई I
झटपट पहुँचा द्वार खोलने, ताला जिस पर लटक रहा था
सारी जेबें ली टटोल पर, चाबी कहीं गुमा आया था
खड़ा रुआँसा भीगा, भूखा, याद आ रही कोमल शैया
नींद भूख दोनों थीं सताती, लेकिन था मजबूर बड़ा I
आसमान को तक के बोला, मदद तुम्हीं अब कर सकते
तभी हाथ कंधे पर आया, मित्र पूछता, क्या दे सकते?
खुशी और अचरज से बोला, खोलो द्वार, फिर जो मांगो
तुरंत घुमाई उसने चाबी, भीतर आ बोला, अब जागो I
मन ही तो वह भटका राही, द्वार आत्मा पर जो आता
ज्ञान मित्र रूप में आकर, बस पल में भीतर ले जाता I
मन पाता विश्राम जहाँ पर, घर अपना वह सुंदर कितना
मिल गयी चाबी हुआ तृप्त, ‘हो’ होना चाहे फिर जितना I
अनिता निहालानी
२३ सितम्बर २०१०
रात अँधेरी और घनेरी, घर का रस्ता भूल गया वह
दूर कहीं से ध्वनि भयानक, भटक रहा भयभीत हुआ वह I
टप टप बूंदें, पवन जोर से, ठंड हड्डियों को थी कंपाती
तभी अचानक बिजली चमकी, घर का द्वार पड़ा दिखाई I
झटपट पहुँचा द्वार खोलने, ताला जिस पर लटक रहा था
सारी जेबें ली टटोल पर, चाबी कहीं गुमा आया था
खड़ा रुआँसा भीगा, भूखा, याद आ रही कोमल शैया
नींद भूख दोनों थीं सताती, लेकिन था मजबूर बड़ा I
आसमान को तक के बोला, मदद तुम्हीं अब कर सकते
तभी हाथ कंधे पर आया, मित्र पूछता, क्या दे सकते?
खुशी और अचरज से बोला, खोलो द्वार, फिर जो मांगो
तुरंत घुमाई उसने चाबी, भीतर आ बोला, अब जागो I
मन ही तो वह भटका राही, द्वार आत्मा पर जो आता
ज्ञान मित्र रूप में आकर, बस पल में भीतर ले जाता I
मन पाता विश्राम जहाँ पर, घर अपना वह सुंदर कितना
मिल गयी चाबी हुआ तृप्त, ‘हो’ होना चाहे फिर जितना I
अनिता निहालानी
२३ सितम्बर २०१०
बुधवार, सितंबर 22
हवा
हवा नाम है उसका
डोलती फिरती है यूँ ही, इधर –उधर
पर ढूँढो तो नहीं आती नजर !
बाहर भी, भीतर भी उसका ही राज है,
वाहन भी चलने का सर उसके ताज है
वह है, तो हम हैं
गुण उसके क्या कम हैं ?
‘हवा से करते हैं बातें’ घुड़सवार,
‘हो जाते हवा’ कभी दोस्त यार
‘हवा निकल गयी’ सुनकर कठिन सवाल
‘भर गयी हवा’ प्रशंसा का जब लगा गुलाल
‘हवा उड़ी’ कारनामों की किसी के
‘हवाईयाँ भी उडती हैं’ चेहरों से
‘हवा पीकर’ कुछ लोग जिन्दा हैं यहाँ
‘बांध कर रखना चाहें हवा’ के परिंदों को यहाँ
‘हवा पलट गयी’ तो पूछेंगे जवाब
बिगड़ गए हैं ‘लगवा के हवा शहर की’ जनाब
‘हवा बिगाड़’ के रख देते हैं माहौल की
कुछ सिरफिरे गंवार
कुछ आते हैं होके ‘हवा के घोड़े पे सवार’ .....
अनिता निहालानी
२२ सितम्बर २०१०
डोलती फिरती है यूँ ही, इधर –उधर
पर ढूँढो तो नहीं आती नजर !
बाहर भी, भीतर भी उसका ही राज है,
वाहन भी चलने का सर उसके ताज है
वह है, तो हम हैं
गुण उसके क्या कम हैं ?
‘हवा से करते हैं बातें’ घुड़सवार,
‘हो जाते हवा’ कभी दोस्त यार
‘हवा निकल गयी’ सुनकर कठिन सवाल
‘भर गयी हवा’ प्रशंसा का जब लगा गुलाल
‘हवा उड़ी’ कारनामों की किसी के
‘हवाईयाँ भी उडती हैं’ चेहरों से
‘हवा पीकर’ कुछ लोग जिन्दा हैं यहाँ
‘बांध कर रखना चाहें हवा’ के परिंदों को यहाँ
‘हवा पलट गयी’ तो पूछेंगे जवाब
बिगड़ गए हैं ‘लगवा के हवा शहर की’ जनाब
‘हवा बिगाड़’ के रख देते हैं माहौल की
कुछ सिरफिरे गंवार
कुछ आते हैं होके ‘हवा के घोड़े पे सवार’ .....
अनिता निहालानी
२२ सितम्बर २०१०
सोमवार, सितंबर 20
मन जब अपने घर को लौटा
मन जब अपने घर को लौटा
रह रह कर मस्ती की गागर
जाने किसने भीतर फोड़ी,
अनजानी सी कुछ अनछूई
खुशियों की चादर है ओढ़ी I
नेह पगा मन टपकाए जो
रस की मधुरिम धार नशीली,
बिन कारण अधरों पर अंकित
कोमल सी मुस्कान रसीली I
न स्मृतियाँ ना स्वप्न ही कोई
भीतर एक खाली आकाश,
उसी शून्य से झर झर झरता
शुभ मदमाता स्नेहिल प्रकाश I
कदमों में थिरकन भर जाता
हाथों भरे ऊर्जा अभिनव,
नयनों में जल प्रीत है भरा
मन अंतर में उल्लास प्रणव I
गुनगुन करता कोई विहरे
चेतनता का गूँजता गान,
तार जुड़ें जब हों अदृश्य से
बिना साधे सधता है ध्यान I
उत्सव के उल्लास में डूब
जाने कौन पाहुना आया,
मन जब अपने घर को लौटा
चैन जहाँ भर का फिर पाया I
अनिता निहालानी
२० सितम्बर २०१०
गुरुवार, सितंबर 16
विश्वकर्मा पूजा
विश्वकर्मा पूजा
पूर्णता से उपजी पूजा, पावन इस जैसा ना दूजा
विश्वकर्मा सृष्टि रचेता, कण-कण में बसा प्रणेता
सितम्बर के चरण पड़ते ही
शुरू हो जाती है हलचल
पहले-पहल धीरे से फिर
जोरों से मचती है खलबल
यूँ तो हर बरस की है यही कहानी
पर लगे नित नयी सदा सुहानी!
मूर्ति कौन लाएगा ?
थाल पूजा का कौन सजायेगा ?
फूलों-हारों का जिम्मा कौन उठाएगा ?
से लेकर भोजन की तैयारी,
करते सभी बारी-बारी
सजी फिर बंदनवार
लगायी सबने पुकार
उपकरणों की करना, हे देव !
वर्ष भर सार-संभार
लगा, मूर्ति मुस्कायी
पुजारी की आँख भर आयी
झुक गया हृदय
मस्तक के साथ
गुपचुप हो गयी बात
उत्सव, उसको भी तो भाए
जैसे हम, वह भी तो
वर्ष भर रहे आस लगाये
कब मुझ तक आयेगा मानव
मोद भरा तृप्त हुआ झूमे गायेगा !
पूजा पावन अमृत घट सी, पूजा पावन कल्प वट सी
पूजा प्रेम का दूजा नाम, प्रेम ही पूजा का पैगाम !
अनिता निहालानी
१६ सितम्बर २०१०
मंगलवार, सितंबर 14
तुम हर पल हमें बुलाते हो !
तुम हर पल हमें बुलाते हो !
जग से जिस पल खाया धोखा
जब जब दिल ने खायी ठोकर,
तुम ही तो पीड़ा बन मिलते
झलक सत्य की दिखलाते हो !
जिनको माना हमने अपना
निकले झूठे वे सब सपने,
आधार बनाया था जिनको
छल करना उन्हें सिखाते हो !
पीड़ा भी तुम वरदान तुम्हीं
सब जाल बिछाया है तुमने,
जीवन का भेद खोलने को
वैराग्य पाठ पढ़ाते हो !
भीतर जो दर्द उठा गहरा
वह आशा से ही उपजा था,
टूटे आशा की डोर तभी
तुम ऐसे खेल रचाते हो !
अनिता निहालानी
१४ सितम्बर २०१०
शुक्रवार, सितंबर 10
गणेश चतुर्थी
गणेश चतुर्थी
नन्हा गणेशा याद आ रहा
मन ही मन, मन मुस्करा रहा !
नाम अनेकों कृत्य अनगिनत
गणपति के आयाम अनगिनत !
सुख-दुख में सब उसे पुकारें
प्रथम वन्दन नाम उच्चारें !
चिठ्ठी हो या पोथी पत्रा
लिखते सभी श्री गणेशाया !
रिद्धि सिद्धि के हैं वरदाता
विद्या दायक बुद्धि प्रदाता !
मूलाधार के देव गणपति
महेश्वरी नंदन गणाधिपति !
लम्बोदर हेरम्ब विनायक
विघ्नहर्ता सुखद फलदायक !
आओ मिलकर उसे रिझाएँ
भीतर निज तुष्टि-पुष्टि पाएँ !
अनिता निहालानी
१० सितम्बर २०१०
गुरुवार, सितंबर 9
स्वस्थ कैसे रहें
स्वस्थ रहने के उपाय
१. जैसे जमीन की गहराई में पानी तथा तेल छिपा होता है, गहरी खुदाई करके निकला जाता है, वैसे ही शरीर की गहराई में आत्मा की अनंत शक्ति छिपी है जिसे उजागर करने पर स्वास्थ्य सहज ही मिलता है.
२. जैसे खिडकियों पर भारी पर्दे लगे हों तो कमरे में प्रकाश मद्धिम सा ही दीख पड़ता है वैसे ही यदि मन पर प्रमाद छा जाये तो आत्मा की शक्ति ढक जाती है व तन अस्वस्थ हो जाता है.
३. जैसे किसी संस्थान को सुचारू रूप से चलाने के लिये अनुशासन बहुत जरूरी है वैसे ही शरीर रूपी संस्थान ठीक रहे इसके लिये सोने, जगने व्यायाम, भोजन का अनुशासन बहुत जरूरी है.
४. जैसे प्रकृति में एक गति है, लय है, रात-दिन तथा ऋतु परिवर्तन उसी लय के अनुसार होते हैं वैसे ही तन, श्वास तथा मन में भी एक लय है रिदम है जिसके बिगड़ने पर रोग हो सकते हैं.
५. जैसे कार के भीतर ड्राइवर स्टीयरिंग पर से कंट्रोल छोड़ दे तो दुर्घटना होगी ही वैसे ही तन रूपी रथ की सारथी बुद्धि, मन रूपी घोड़े को खुला छोड़ दे, भोजन, नींद, व्यायाम में संयम, तथा सही मात्रा व सही समय का ध्यान न रखे तो हम स्वस्थ कैसे रह सकते हैं.
६. शरीर के भीतर स्वयं को स्वस्थ रखने का पूरा प्रबंध है बस उसे हमारा सहयोग चाहिए
जरूरत से ज्यादा उसे थकाएं भी नहीं और आराम भी न दें.
७. नम वातावरण में, गीले मौसम में ठंडी चीजें नुकसान करती हैं, इनसे दूर ही रहें.
८. जैसे हम रेल यात्रा करने जाएँ तो हमारी सीट, कूपा तथा सहयात्री सभी पहले से तय होते हैं वैसे ही जीवन यात्रा में हमें जहाँ-जहाँ जो मिलेगा वह पूर्व निर्धारित है, जैसे हम रेल यात्रा को सुखद बनाना जानते हैं, वैसे ही सही दृष्टिकोण रखकर हम जीवन यात्रा को सुखद बना सकते हैं.
अनिता निहालानी
९ सितम्बर २०१०
१. जैसे जमीन की गहराई में पानी तथा तेल छिपा होता है, गहरी खुदाई करके निकला जाता है, वैसे ही शरीर की गहराई में आत्मा की अनंत शक्ति छिपी है जिसे उजागर करने पर स्वास्थ्य सहज ही मिलता है.
२. जैसे खिडकियों पर भारी पर्दे लगे हों तो कमरे में प्रकाश मद्धिम सा ही दीख पड़ता है वैसे ही यदि मन पर प्रमाद छा जाये तो आत्मा की शक्ति ढक जाती है व तन अस्वस्थ हो जाता है.
३. जैसे किसी संस्थान को सुचारू रूप से चलाने के लिये अनुशासन बहुत जरूरी है वैसे ही शरीर रूपी संस्थान ठीक रहे इसके लिये सोने, जगने व्यायाम, भोजन का अनुशासन बहुत जरूरी है.
४. जैसे प्रकृति में एक गति है, लय है, रात-दिन तथा ऋतु परिवर्तन उसी लय के अनुसार होते हैं वैसे ही तन, श्वास तथा मन में भी एक लय है रिदम है जिसके बिगड़ने पर रोग हो सकते हैं.
५. जैसे कार के भीतर ड्राइवर स्टीयरिंग पर से कंट्रोल छोड़ दे तो दुर्घटना होगी ही वैसे ही तन रूपी रथ की सारथी बुद्धि, मन रूपी घोड़े को खुला छोड़ दे, भोजन, नींद, व्यायाम में संयम, तथा सही मात्रा व सही समय का ध्यान न रखे तो हम स्वस्थ कैसे रह सकते हैं.
६. शरीर के भीतर स्वयं को स्वस्थ रखने का पूरा प्रबंध है बस उसे हमारा सहयोग चाहिए
जरूरत से ज्यादा उसे थकाएं भी नहीं और आराम भी न दें.
७. नम वातावरण में, गीले मौसम में ठंडी चीजें नुकसान करती हैं, इनसे दूर ही रहें.
८. जैसे हम रेल यात्रा करने जाएँ तो हमारी सीट, कूपा तथा सहयात्री सभी पहले से तय होते हैं वैसे ही जीवन यात्रा में हमें जहाँ-जहाँ जो मिलेगा वह पूर्व निर्धारित है, जैसे हम रेल यात्रा को सुखद बनाना जानते हैं, वैसे ही सही दृष्टिकोण रखकर हम जीवन यात्रा को सुखद बना सकते हैं.
अनिता निहालानी
९ सितम्बर २०१०
शनिवार, सितंबर 4
एक खुला पत्र
एक खुला पत्र
मेरे प्यारे बेटे,
खुश रहो,
आज सुबह ही मुझे यह विचार आया कि क्यों न तुम्हें एक पत्र लिखकर वह सब कहूँ जो फोन पर कहना सम्भव नहीं है. मैंने कॉलेज की पढ़ाई घर पर रह कर ही की. पर तुम्हें पिछले कई वर्षों से घर से बाहर रहना पड़ रहा है, जो सुविधाएँ तथा स्वास्थ्य घर पर रह कर हम सहज ही पा सकते हैं, वह बाहर नही मिल पाता, वहाँ हमें कोई अनुशासित करने वाला नहीं होता, अपनी समझ से जो हमें भाए वैसी दिनचर्या हम अपना लेते हैं. कोई यदि अनुशासन प्रिय हो तो वह अपने को एक नियमित दिनचर्या देने में सफल हो जाता है वरना अधिकतर तो जब जैसा अवसर मिला खा लिया, जब समय मिला सो गए. इस अनियमितता का असर तन तथा मन दोनों पर पड़ता है. हमारे भीतर एक शक्ति है जिसे किसी ने ‘आत्मा’ कहा किसी ने ‘ईश्वर’ कहा, उसे जो भी नाम दो चाहे ‘नियम’ कहो या ‘कुदरत’ कहो या ‘अपना-आप’ कहो वह शक्ति हमारे तन, मन, व बुद्धि सभी पर निरंतर नजर रखे हुए है. वह हमारी स्वतंत्रता में बाधा नहीं देती, पर सदा हमारा ध्यान रखती है, उससे जुड़े रहकर हम सहज ही प्रसन्न व स्वस्थ रहते हैं, लेकिन जब हमारी दिनचर्या ठीक नहीं रहती, या तनाव, परेशानी, उदासी से मन घिर जाता है तो एक आवरण उस शक्ति तक हमें पहुंचने नहीं देता, हम ‘स्व’ में स्थित नहीं रह पाते, अर्थात ‘स्वस्थ’ नहीं रह पाते. सजग और प्रफ्फुलित मन इस बात की निशानी है कि हम उस स्रोत से जुड़े हैं. खुशी हमारा स्वभाव बन जाये तो हम उसके निकट ही हैं.
हम अपने जीवन द्वारा अपने सम्पर्क में आने वाले लोगों तथा वातावरण को सकारात्मक रूप से कितना प्रभावित कर पाते हैं इस पर भी मन की सहज प्रसन्नता निर्भर करती है. केवल स्वयं के लिये सुख-सुविधाओं को जुटाना कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है, मानव होने के बाद यदि कोई सदा खुद के बारे में ही सोचता रहे तो दुःख व शोक से उसका छुटकारा होना सम्भव नहीं है, क्योंकि हर इन्द्रिय सुख अपने पीछे एक दुःख को छिपाए है. जब हम अपने कार्य द्वारा खुशी चाहते हैं तभी तनाव भी होता है, कुछ करके उसके फल द्वारा प्रसन्नता चाहना सदा एक अनिश्चितता में रहना है, क्योकि फल तो हमारे हाथ में है नहीं, इसी तरह अपने काम पर दूसरों की राय जानने कि इच्छा, अन्यों का अनुमोदन पाने की इच्छा भी हमें गुलाम बनाती है, कुछ करके दिखाने की इच्छा भी परतंत्रता की निशानी है. तो क्या हमें कर्म त्याग देना है ? नहीं, हमें अपना कार्य पूरे मन से करना है, करते हुए ही आनंद का अनुभव करते जाना है फल आने तक उसे टालना नहीं है. तब हमारा मन समता में रहेगा, तब निर्भर होकर नहीं हम निर्भार होकर जीना सीख जाते हैं. पत्र लम्बा तो हो गया है पर इसमें लिखी बातों पर तुम थोड़ा गहराई से विचार करोगे तथा नियमित जीवन शैली अपनाओगे तो सदा स्वस्थ रहोगे.
स्नेह व शुभकामनाओं सहित
माँ
मेरे प्यारे बेटे,
खुश रहो,
आज सुबह ही मुझे यह विचार आया कि क्यों न तुम्हें एक पत्र लिखकर वह सब कहूँ जो फोन पर कहना सम्भव नहीं है. मैंने कॉलेज की पढ़ाई घर पर रह कर ही की. पर तुम्हें पिछले कई वर्षों से घर से बाहर रहना पड़ रहा है, जो सुविधाएँ तथा स्वास्थ्य घर पर रह कर हम सहज ही पा सकते हैं, वह बाहर नही मिल पाता, वहाँ हमें कोई अनुशासित करने वाला नहीं होता, अपनी समझ से जो हमें भाए वैसी दिनचर्या हम अपना लेते हैं. कोई यदि अनुशासन प्रिय हो तो वह अपने को एक नियमित दिनचर्या देने में सफल हो जाता है वरना अधिकतर तो जब जैसा अवसर मिला खा लिया, जब समय मिला सो गए. इस अनियमितता का असर तन तथा मन दोनों पर पड़ता है. हमारे भीतर एक शक्ति है जिसे किसी ने ‘आत्मा’ कहा किसी ने ‘ईश्वर’ कहा, उसे जो भी नाम दो चाहे ‘नियम’ कहो या ‘कुदरत’ कहो या ‘अपना-आप’ कहो वह शक्ति हमारे तन, मन, व बुद्धि सभी पर निरंतर नजर रखे हुए है. वह हमारी स्वतंत्रता में बाधा नहीं देती, पर सदा हमारा ध्यान रखती है, उससे जुड़े रहकर हम सहज ही प्रसन्न व स्वस्थ रहते हैं, लेकिन जब हमारी दिनचर्या ठीक नहीं रहती, या तनाव, परेशानी, उदासी से मन घिर जाता है तो एक आवरण उस शक्ति तक हमें पहुंचने नहीं देता, हम ‘स्व’ में स्थित नहीं रह पाते, अर्थात ‘स्वस्थ’ नहीं रह पाते. सजग और प्रफ्फुलित मन इस बात की निशानी है कि हम उस स्रोत से जुड़े हैं. खुशी हमारा स्वभाव बन जाये तो हम उसके निकट ही हैं.
हम अपने जीवन द्वारा अपने सम्पर्क में आने वाले लोगों तथा वातावरण को सकारात्मक रूप से कितना प्रभावित कर पाते हैं इस पर भी मन की सहज प्रसन्नता निर्भर करती है. केवल स्वयं के लिये सुख-सुविधाओं को जुटाना कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है, मानव होने के बाद यदि कोई सदा खुद के बारे में ही सोचता रहे तो दुःख व शोक से उसका छुटकारा होना सम्भव नहीं है, क्योंकि हर इन्द्रिय सुख अपने पीछे एक दुःख को छिपाए है. जब हम अपने कार्य द्वारा खुशी चाहते हैं तभी तनाव भी होता है, कुछ करके उसके फल द्वारा प्रसन्नता चाहना सदा एक अनिश्चितता में रहना है, क्योकि फल तो हमारे हाथ में है नहीं, इसी तरह अपने काम पर दूसरों की राय जानने कि इच्छा, अन्यों का अनुमोदन पाने की इच्छा भी हमें गुलाम बनाती है, कुछ करके दिखाने की इच्छा भी परतंत्रता की निशानी है. तो क्या हमें कर्म त्याग देना है ? नहीं, हमें अपना कार्य पूरे मन से करना है, करते हुए ही आनंद का अनुभव करते जाना है फल आने तक उसे टालना नहीं है. तब हमारा मन समता में रहेगा, तब निर्भर होकर नहीं हम निर्भार होकर जीना सीख जाते हैं. पत्र लम्बा तो हो गया है पर इसमें लिखी बातों पर तुम थोड़ा गहराई से विचार करोगे तथा नियमित जीवन शैली अपनाओगे तो सदा स्वस्थ रहोगे.
स्नेह व शुभकामनाओं सहित
माँ
बुधवार, सितंबर 1
कृष्ण जन्माष्टमी
कृष्ण जन्माष्टमी
मथुरा रोयी होगी उस दिन, कृष्ण चले जब यमुना पार
जिस भूमि पर हुए अवतरित, न दे पायी उन्हें दुलार I
अभी तपस्या की बेला है, बारह वर्षों की प्रतीक्षा
लौट करेंगे कृष्ण किशोर, कंस कृत्य की समीक्षा I
अभी तो गोकुल जाते कान्हा, नन्द यशोदा को हर्षाने
ग्वालों, गैयों, संग खेलने, संग गोपियों रास रचाने I
माखन चोरी, मटकी तोड़ी, असुर-वध नित नयी लीला
मधुर वचन, बांसुरी वादन, ब्रज वासी कृष्ण रंगीला I
पलक झपकते बीता बचपन, मथुरा जाने का दिन आया
तड़पा हर ब्रज वासी का उर, नन्द यशोदा उर घबराया I
राधा की आँखें बरसीं विरह की पीड़ा थी भारी
अद्भुत थी कृष्ण की लीला, अब तक सृष्टि है वारी I
अनिता निहालानी
१ सितम्बर २०१०