शरद की एक साँझ
भीगी-भीगी दूब ओस से
हरीतिमा जिसकी लुभाती
शेफाली की मोहक सुरभि
झींगुर गान सँग तिर आती I
शरद काल का नीरव नभ है
रिक्त मेघ से, दर्पण जैसा
दमक रहा साँझ का तारा
चन्द्र बना सौंदर्य गगन का I
हल्की हल्की ठंडक प्यारी
सन्नाटे को सघन बनाती
पेड़ों, पौधों की छायाएं
उपवन रहस्यमयी बनातीं I
नन्हें नन्हें कीट दूब में
श्वेत पतंगे ज्योति खोजते
नवरात्रि पूजा मंगल स्वर
छन के आते मंदिर पट से I
एक और आवाज गूंजती
नीरवता को भंग कर रही
बिजली गुम हो गयी लगती है
जेनरेटर की धुन बज रही !
अनिता निहालानी
१३ अक्तूबर २०१०
इस जेनरेटर की आवाज़ ने तो रंग में भंग कर दिया!
जवाब देंहटाएंअनीता जी ,
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह बहुत सुन्दर कविता..........एक समां सा बंद गया था .....नीलेश जी ने ठीक कहा ये जनरेटर बीच में कहाँ से आया ?
सचमुच, आपने बिलकुल सही कहा! लेकिन मैंने उसे भी धुन मान कर भंग होते होते बचा लिया, सदगुरु यही तो सिखाते हैं!
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