मुक्ति का छंद
रोकें नहीं ऊर्जा भीतर
पल-पल बहती रहे जगत में,
त्वरा झलकती हो कृत्यों से
पांव रुकें ना थक कर मग में !
हरसिंगार से नित रिक्त हों
पुनः-पुनः मंगलमय ज्योति झरे,
जमी ऊर्जा बन पाहन सी
न सृजनशील विनाश ही करे !
नदी रुकी जो नष्ट हो गयी
बहती सदा स्रोत से पाए,
जीवन जो नित बढ़ना जाने
मंजिल वह इक दिन पा जाये!
पुण्यों की ऊर्जा बहायें
भीतर न कोई अभाव रहे,
भरता ही जाता है आंचल
जब-जब मुक्ति की मिठास बहे !
लुटा रहा है सारा अम्बर
हम भी दोनों हाथ उलीचें,
क्षण-क्षण में जी स्वर्ग बना लें
बँधी हुई मुठ्ठी न भींचें !
अनिता निहालानी
१९ अक्टूबर २०१०
अनीता जी,
जवाब देंहटाएंहर बार की तरह एक बार फिर ....एक शानदार रचना.....सच यही तो मुक्ति है....
क्षण क्षण जियें तो स्वर्ग है
जवाब देंहटाएंबंधी हुई मुठ्ठी ना भींचें !
सुविचार .. शानदार