विप्लव आज अवश्यम्भावी
घंटनाद मंदिरों के अब बन जाने दो सिहंनाद,
आज वही युग आया जब युद्ध में हो संवाद !
जाग उठे अब जन जन ऐसी रणभेरी बजने दो,
क्रांति बिगुल बजाए ऐसा हर मस्तक सजने दो !
विप्लव आज अवश्यम्भावी युग बीते हम सोये
कैद हुए निज पीड़ा में पाया क्या बस रोये ?
भुला दिये मूल्यों का सम्मान पुनः करना है,
लेकिन पहले जाग के भीतर स्वयं अभय भरना है !
भीतर पाकर परम उजाला जग में उसे लुटाएं,
उसी शांति से उपजे कलरव क्रांति गीत बन जाएँ !
कोना कोना गूंज उठे फिर ऐसा रोर मचे,
उखड़ें सड़ी गली रीतियाँ जमके शोर मचे !
हाथ उठा आज धरा को अम्बर से मिलने दो
चिन्मय को मृण्मय का संदेसा पा खिलने दो !
अनिता निहालानी
१५ जनवरी २०११
लेकिन पहले जाग के भीतर स्वयं अभय भरना है !--यही तो सबसे मुश्किल काम है.जिस दिन भीतर अभय आ गया ,सब कुछ ठीक लाइन पर आ जाएगा.
जवाब देंहटाएंअनीता जी,
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर.....ये क्रांति अगर हो जाये तो शायद दुनिया कुछ और ही बन जाएगी.....बहुत सुन्दर....
रोर का अर्थ समझ नहीं पाया|
क्रन्तिकारी उद्घोष देती हुई सुंदर प्रस्तुति -
जवाब देंहटाएंमैं आपके साथ हूँ -
शुभकामनायें
ओजपूर्ण रचना जो क्रांति का बिगुल बजाती प्रतीत होती है। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
जवाब देंहटाएंफ़ुरसत में … आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री जी के साथ (दूसरा भाग)
भुला दिये मूल्यों का सम्मान पुनः करना है,
जवाब देंहटाएंलेकिन पहले जाग के भीतर स्वयं अभय भरना है !
बहुत प्रेरक..आज इसी क्रांति की आवश्यकता है..
कोना कोना गूंज उठे फिर ऐसा रोर मचे,
जवाब देंहटाएंउखड़ें सड़ी गली रीतियाँ जमके शोर मचे !
बहुत ही क्रांतिकारी विचार हैं आपके अनिता जी|
navincchaturvedi@gmail.com
आप सभी का आभार एवं आवाहन ! मेरे विचार से रोर का अर्थ भीषण ध्वनि है.
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