बुधवार, जनवरी 19

सच की दुनिया कोमल कितनी !


सच की दुनिया कोमल कितनी !

छा जाये जब सघन अँधेरा
हाथ  हाथ को भी ना सूझे,
राह नजर ना आये कोई
हाले दिल कोई ना बूझे !

भीतर कान लगाये सुनते
बिना रुके ना ही घबराये, 
 यानि अंतर्मन की गुनते
हिम्मत से बस बढ़ते जायें ! 

अभी तो हैं गुम अपने आगे
खुद से भी अनजाने हैं हम,
इसीलिए तो अंधकार है
इस जग से  बेगाने हैं हम !

तिमिर घना यह हो कितना ही
ओढ़ाया गया है हम पर
है असत्य यह एक छलावा
 अनावरण में लगेगा पल भर !

सच तो पिघला पिघला सा है
बहता जाता गति में अपनी,
नहीं आग्रह, नहीं धारणा
सच की दुनिया कोमल कितनी !

अनिता निहालानी
१९ जनवरी २०११   



 

6 टिप्‍पणियां:

  1. छा जाये जब सघन अँधेरा हाथ भी हाथ को ना सूझे, राह नजर ना आये कोईहाले दिल कोई ना बूझे !
    उम्दा लेखन,खूबसूरत अभिव्यक्ति
    .........वाह वाह, क्या बात है कमाल की प्रस्तुति............अनिता जी

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  2. अच्छी कविता.
    वैसे तो ब्लॉग टैम्प्लेट आपकी रूचि का हो सकता है, मगर पाठकों की पसंद और सहूलियत का खयाल रखते हुए आग्रह है कि पाठ क्षेत्र की पृष्ठभूमि सफेद तथा पाठ काला कर दें तो अच्छा रहेगा. काली पृष्ठ भूमि पर सफेद अक्षर आँखों में चकाचौंध पैदा करते हैं, खासकर कंप्यूटर स्क्रीन पर.

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  3. अनीता जी,

    उपस्थित हूँ.....ये पंक्तियाँ यतार्थ हैं हमारे जैसे लोगों के लिए....

    अभी तो हो गुम अपने आगे
    खुद से भी अनजाने हो तुम,
    इसीलिए तो अंधकार है
    घबराए, बेगाने हो तुम !

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  4. इमरान जी ,हम सभी एक ही नाव के यात्री हैं, गलतफहमी न हो सो कविता फिर से पढ़ें! रवि जी अब तो आपको पढ़ने में दिक्कत नहीं हो रही, आप सबका आभार !

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  5. सच की दुनिया कोमल कितनी !--वाकई सच का ही तो सहारा है.जिस दिन इस मायावी दुनिया से सच चला गया तो दुनिया तो खत्म.पर ऐसा कभी हो नहीं सकता कि सच न रहे.

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