बुधवार, अक्तूबर 19

इस जग में तू कहाँ नहीं था


इस जग में तू कहाँ नहीं था

जहाँ गयी यह दृष्टि मेरी
तू पहले मौजूद वहीं था,
नादानी कैसी थी अद्भुत
इस जग में तू कहाँ नहीं था !

कुदरत के जर्रे-जर्रे से
झांक रही हैं तेरी आँखें,
नयन मूंद बैठे हम पागल
जहाँ निहारा तू ही झांकें !

बादल से जो बरस रहा था
वह तेरा था मधुर संदेसा.
पछुआ बन के जो सहलाता
तेरे आने का अंदेसा !

हरी दूब की तू हरीतिमा
रवि बन तेज गगन फैलाये,
भेज रजत सी शीतल रातें
वनस्पतियों में स्वयं मुस्काए !

जब भी ढूँढा तुझको जग में
तत्क्षण तूने किया इशारा,
दिल से जो भी तुझे पुकारे
झट तूने भी उसे निहारा !
 





10 टिप्‍पणियां:

  1. कण कण में विद्यमान है वो ... बहुत सुन्दर प्रस्तुति

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति ||
    मेरी बधाई स्वीकार करें ||

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  3. बहुत ही सुन्दर और मर्म टटोलती कविता।

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  4. हरी दूब की तू हरीतिमा
    रवि बन तेज गगन फैलाये,
    भेज रजत सी शीतल रातें
    वनस्पतियों में स्वयं मुस्काए !

    हर जगह व्याप्त है वो तो।

    सादर

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  5. यह रचना मन के भाव की उत्तम अभिव्यक्ति है जिसमें अध्यात्म की झलक दिखती है।

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  6. कुदरत के जर्रे-जर्रे से
    झांक रही हैं तेरी आँखें,
    नयन मूंद बैठे हम पागल
    जहाँ निहारा तू ही झांकें !
    सुन्दर.... वाह!
    सादर बधाई...

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  7. कुदरत के जर्रे-जर्रे से
    झांक रही हैं तेरी आँखें,
    नयन मूंद बैठे हम पागल
    जहाँ निहारा तू ही झांकें !

    बादल से जो बरस रहा था
    वह तेरा था मधुर संदेसा.
    पछुआ बन के जो सहलाता
    तेरे आने का अंदेसा !

    वा वाह....वा वाह ...वा वाह .....
    आनंद आ गया आपकी सरलता पर ! बधाई इस प्यारे गीत पर
    आभार आपका !

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  8. जहाँ गयी यह दृष्टि मेरी
    तू पहले मौजूद वहीं था,
    नादानी कैसी थी अद्भुत
    इस जग में तू कहाँ नहीं था !

    जब भी ढूँढा तुझको जग में
    तत्क्षण तूने किया इशारा,
    दिल से जो भी तुझे पुकारे
    झट तूने भी उसे निहारा !

    सुन्दर अति सुन्दर |

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