दादी ! प्यारी दादी
मेरे बचपन की मधुर यादों में एक याद यह भी है, मेरे द्वारा अपनी दादीजी को रामायण (रामचरितमानस) पढ़कर सुनाना. भगवान राम पर उनकी पूरी आस्था थी. पहले दीदी से फिर मुझसे रामायण सुनती थीं. हमारे जाने के बाद छोटी भाभी से सुना करती थीं. आज सोचती हूँ तो आश्चर्य होता है, मैं उस समय कितना सत्य मानती थी इस कथा को और दादीजी वह तो पूरी डूब जातीं थीं. पर उनके लिये शायद सत्य-असत्य का प्रश्न ही नहीं था, वह समर्पित थीं इस भावना को कि भगवान की कथा को सुनने से बढ़कर कोई पुण्य नहीं. मैं पढ़ती जाती थी, पढ़ती जाती थी और कई बार तो जब काफ़ी छोटी थी तो पढ़ा हुआ एक भी शब्द समझ में नहीं आता था. फिर मैं पेज गिनती और दादी जी कहतीं, बस.. अब तुम थक गयी होगी.
दशहरे के दिन या उससे कुछ दिन पूर्व हम लंका कांड पढ़ना शुरू करते. दशहरे के दिन रावण की मृत्यु का वर्णन सुनाती तो उनकी आँखों में, नहीं उनकी आँखों में विश्वास नहीं दिखाई देता था बस वह संतुष्ट लगती थीं. उनकी एक आँख तो बचपन में ही चेचक के कारण जाती रही थी, दूसरी की रोशनी भी घटती जा रही थी. सहारनपुर के निकट चमारीखेडा आंखों के अस्पताल में, जहाँ मैं अपने पिता के साथ साईकिल पर बैठकर उन्हें देखने गयी थी, २२ किमी० की वह यात्रा और जीवन में पहली और अंतिम बार गाँव में एक रात बिताने का अवसर आज तक याद है. सुबह-सुबह रहट पर जाकर हाथ मुँह धोया था. बाद में भवानी अस्पताल में तथा सीतापुर में भी उनकी आँखों का इलाज कराने की कोशिश तो की गई थी पर सफलता नही मिली.
मै जब कॉलेज में पहुँच गयी तो लगता था कि अब रामायण पढ़कर सुनाऊं तो पहले जैसी बात नहीं रहेगी, जबकि तब मैं पहले से कहीं अच्छी तरह समझ सकती थी या समझा सकती थी. पर एक तो तब समय नहीं मिलता, कभी उनसे मिलने भी जाती तो यह याद ही नहीं रहता और दादीजी भी कभी नहीं कहती थीं. फिर विवाह के बाद तो उनसे मिलना साल में या दो साल में एक बार होता था. वह जैसे जैसे वृद्ध होती जा रही थीं आँखें बिल्कुल ही नहीं देख पाती थीं, उनकी मृत्यु भी इसी कारण हुई, आज उनकी बहुत सी यादें स्मृति पटल पर दस्तक दे रही हैं. कल रात बरसों बाद उन्हें स्वप्न में देखा. हम जिन पूर्वजों के कारण इस दुनिया में आते हैं उन्हें ही भूल जाते हैं, हमारी स्मृति बहुत अल्प है.
दादीजी हमें बताती थीं कि जब उनकी शादी हुई तो उनकी सासूजी उनकी परीक्षा लेने के लिए उन्हें कोई भी एक काम में लगाने के बाद जल्दी ही दूसरा काम बता देतीं थी, जैसे कि वह आटा गूँथ रही हैं तो उन्हें कहती जा एक गिलास पानी ले आ. वह आटा गूँथना छोड़ कर फौरन पानी देने पहुंच जाती. उनका कहना था कि वह कभी किसी काम के लिए न नही करतीं थीं, उनकी सासूजी का पूरा नियंत्रण था उन पर.
दादीजी हमें कहानियाँ भी सुनाती थीं, दया करने वाली चिड़ियों और एहसान फरामोश चुहियों की कहानी. एक राजा और और उसकी सात रानियों की कहानी. एक अनार सौ बीमार वाली कहानी भी सुनाती थीं, हर मंगलवार को हनुमान चालीसा भी मुझसे सुनती थीं.
यह भी उनके बारे में सुना था कि उन्हें बाहर जाने के लिए कपड़े बदलने में जरा भी आलस्य नहीं आता था, भले ही दिन में तीन चार बार कपड़े क्यों न बदलने पड़ें. और बिना ढंग के कपड़े पहने वह कभी बाहर नही निकलती थीं. आटे के बिस्किट, गली की खुली बेकरी से अपने सामने बनवा के लाती थीं. उन बिस्कुटों का स्वाद अभी तक किसी ब्रांड के बिस्किट्स में नही आया.
दीदी ने बताया कि बचपन में मथूरो चाचीजी की बेटी लक्ष्मी के घर श्राद्ध का खाना हम बच्चे लेकर नुमाइश कैम्प स्थित उनके घर जाते थे. हलवा, पूड़ी, खीर एक बड़े से टिफिन में भर कर, एक बार हम नुमाइश कैम्प से आते समय थोड़ा दूसरे रास्तों से घूमते हुए घर देर से वापिस आये तो दादीजी ने समझाया कि लडकियां ऐसे इधर उधर नही भटकतीं, सीधे रस्ते से घर आना चाहिए.
मन की आँखो के सामने उनकी तस्वीर चूल्हे में लकडियाँ जलाने के लिए फूंकते हुए आती है या फिर राख से बर्तन साफ़ करते हुए या रामायण सुनते हुए. मुझे उनका अहोई के त्यौहार के दिन बच्चों को एक जगह छिपने को कहकर फिर आवाज देकर बुलाना भी याद है, जिसके बाद हमें प्रसाद मिलता था. पंडित जी घर पर आकर सभी के हाथों में लाल सूत्र बांध जाते थे. अब न वह त्योहार रहे न ही आज बच्चों के पास इतना समय रह गया है.
दादीजी में यह विशेषता भी थी कि कहीं भी उन्हें कोई चित्र बना हुआ दिख जाये तो वह उसे अपनी याददाश्त से कसीदकारी(कढ़ाई)में उतार देती थीं.पर जल्दी ही आँखे खराब हो जाने से यह गुण छुपा ही रह गया. आज उनको याद करते हुए शत शत नमन करने के सिवाय और कुछ भी नहीं कर सकती... हाँ यह कामना जरूर कर सकती हूँ कि वे जहाँ भी हों अपने नए रूप में... खुश रहें और अपने आस-पास खुशियाँ बिखराती रहें.
शत शत नमन ||
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति |
त्योहारों की यह श्रृंखला मुबारक ||
बहुत बहुत बधाई ||
मुझे भी दादी की याद आ गयी ..
जवाब देंहटाएंबदकिस्मती से हमे अपनी दादी और नानी दोनों को देखना नसीब नहीं हुआ ........पर आपका संस्मरण पढ़ कर लगा की बुजुर्गों का साथ जो बचपन में मिलता है वो कभी नहीं मिटता.........श्रद्धांजलि आपकी दादी जी को........खुदा उनको जन्नत अता करे......आमीन|
जवाब देंहटाएंइमरान जी, मुझे भी नानीजी का साथ नहीं मिला बहुत छोटी थी जब उनका इंतकाल हो गया. दादी जी वर्षा, आंधी, तूफान से बहुत डरतीं थीं, और पुलिस के सिपाही को देखते ही हम बच्चों को खिड़की, दरवाजे सब बंद कर के अंदर बैठ जाने को कहती थीं. पाकिस्तान से एक काफिले में भारत आयीं थीं वही डर शायद भीतर थे... पर एक दूसरी तरह से बहुत मजबूत भी थीं.
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छा लगा नानीजी के बारे में जानकर।
जवाब देंहटाएंमेरी छोटी बहन जो एक डॉक्टर है, ने लिखा-
जवाब देंहटाएंI also read Ramayan for her whenever i used to come back from hostel ,in return i used to get besan ka watna massage on my back and arms. me and mukesh bhaiya used to show her every new thing we purchased to get the blessing --bhagwan rang laai rakkhi ! and we used to chuckle --bhabbi ji kede rang ? --laal ki hare?
now after marriage i do keep every new thing in front of bhagwan in my puja room. but that feeling ,those moments of achieving some thing with blessing of elders is no more. now even purchasing a car of 10 lakh could not give me a moment of happiness .but in her time buying a simple piece of cloth was enough to give me days of happiness.probably my kids are missing all those wealth of emotions . now living in present moment is so different then living in present of those days .every moment has so much wast mystry in itself.now being in present demands me to remain still and calm .earlier it was full of love and blessings.