बुधवार, नवंबर 30

नन्हा रजकण सृष्टि समेटे


नन्हा रजकण सृष्टि समेटे


बाशिंदा जो जिस दुनिया का
गीत वहीं के ही गायेगा,
अम्बर में उड़ने वाला खग
गह्वर में क्या रह पायेगा !

उस अनंत स्रष्टा का वैभव
देख-देख झुक जाता अंतर,
जाने कितने रूप धरे हैं
तृप्त नहीं होता रच-रच कर !

स्वयं तो शांत सदा एकरस
कोटि-कोटि ब्रह्मांड रचाए,
भीतर भर दी चाह अनोखी
देख-देख भी उर न अघाये !

रंगों की ऐसी बरसातें
खुशबू के फव्वारे छोड़े,
रसमय उस प्रियतम ने देखो
छेड़ दिये हैं राग व तोड़े !

कुछ भी यहाँ व्यर्थ न दीखे
नन्हा रजकण सृष्टि समेटे,
तृण का इक लघु पादप देखो
सुख अपनी गरिमा में लपेटे ! 

22 टिप्‍पणियां:

  1. रसमय उस प्रियतम ने देखो
    छेड़ दिये हैं राग व तोड़े !

    sunder rag aur tode bhi ...
    shubhkamnayen

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  2. बहुत बहुत आभार ||

    सुन्दर प्रस्तुति ||

    कुछ भी यहाँ व्यर्थ न दीखे ||

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  3. सही कहा …………अजब तेरी कारीगरी करतार्…………रसमय बनाया तूने ह्रदयतार

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  4. उस अनंत स्रष्टा का वैभव
    देख-देख झुक जाता अंतर,
    जाने कितने रूप धरे हैं
    तृप्त नहीं होता रच-रच कर !

    ...बहुत भक्तिमयी अभिव्यक्ति...उसकी कारीगरी अनंत और अद्भुत है..

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  5. बहुत कुछ कहती है आपकी रचना.....

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  6. सुंदर अति सुंदर
    लयबद्धता किसी को भी आकर्षित कर सकती है
    मज़ा आया पढ़कर

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  7. अनुपमा जी, रविकर जी, वन्दना जी,सुषमा जी, महेंद्र जी, कैलाश जी, नवीन जी,यशवंत जी आप सभी का बहुत बहुत आभार !

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  8. स्वयं तो शांत सदा एकरस
    कोटि-कोटि ब्रह्मांड रचाए,
    भीतर भर दी चाह अनोखी
    देख-देख भी उर न अघाये !

    रंगों की ऐसी बरसातें
    खुशबू के फव्वारे छोड़े,
    रसमय उस प्रियतम ने देखो
    छेड़ दिये हैं राग व तोड़े !
    ....
    अरे दी !..मन कर रहा है नाच उठूँ सच में आप को नमन...कह नहीं पाउँगा कितना डूबा दिया आपने !

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  9. आनंद जी, नाचने की बात पर, आप आज की पोस्ट पढ़ें और खूब नाचें...

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  10. उस अनंत स्रष्टा का वैभव
    देख-देख झुक जाता अंतर,
    जाने कितने रूप धरे हैं
    तृप्त नहीं होता रच-रच कर !


    स्वयं तो शांत सदा एकरस
    कोटि-कोटि ब्रह्मांड रचाए,
    भीतर भर दी चाह अनोखी
    देख-देख भी उर न अघाये

    "शब्द तुम्हारे गीत हमारे,कैसे कोई गा सकता है !
    नाच उठे ये जग सारा यूँ,भाव कोई बिखरा सकता है...!!"

    बस नि:शब्द हूँ............

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  11. वाह बहुत सुंदर पंक्तियाँ !
    बेहतरीन और बेजोड़ रचना !

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  12. कुछ भी यहाँ व्यर्थ न दीखे
    नन्हा रजकण सृष्टि समेटे,
    तृण का इक लघु पादप देखो
    सुख अपनी गरिमा में लपेटे !

    गहन आध्यात्मिक रंग में रची बसी रचना है अनीता जी ! बहुत आनंद मिला आज इस रचना को पढ़ कर ! बधाई एवं आभार !

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  13. वाह वाह....
    बहुत सुन्दर आनंदप्रद गीत...
    सादर

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  14. .


    आदरणीया अनिता जी
    सादर प्रणाम !

    इतना सुंदर गीत ! मन भीग गया -
    उस अनंत स्रष्टा का वैभव
    देख-देख झुक जाता अंतर,
    जाने कितने रूप धरे हैं
    तृप्त नहीं होता रच-रच कर !

    स्वयं तो शांत सदा एकरस
    कोटि-कोटि ब्रह्मांड रचाए,
    भीतर भर दी चाह अनोखी
    देख-देख भी उर न अघाये !

    रंगों की ऐसी बरसातें
    खुशबू के फव्वारे छोड़े,
    रसमय उस प्रियतम ने देखो
    छेड़ दिये हैं राग व तोड़े !

    वास्तव में हम कितना भी श्रेष्ठ लिखें … परम आनंदानुभूति परमात्मा की आराधना में शब्द-पुष्प समर्पित करने में ही होती है…
    नमन ! वंदन ! उस अनंत स्रष्टा को ! … और आपकी लेखनी को ! आपको !!

    आभार और मंगलकामनाओं सहित…
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  15. उस अनंत स्रष्टा का वैभव
    देख-देख झुक जाता अंतर,
    जाने कितने रूप धरे हैं
    तृप्त नहीं होता रच-रच कर
    bahut bhaw purn rachna aabhar

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  16. ममता जी, राजेन्द्र जी, अनामिका जी, संजय जी, साधना जी, अमृता जी, शिखा जी, संतोष जी व पूनम जी आप सभी का हृदय से आभार!

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