ठहर गया उर ज्यों आकाश
विरस हुआ जग से जब कोई
स्वरस में डूबा उतराया,
धीरे-धीरे उससे उबरा
रस कोई भी बांध न पाया !
जग से लौटा ठहरा खुद में
स्वयं से भी फिर मुक्त हुआ,
स्वयं ‘पर’ के बल पर ही टिकता
मन इससे भी रिक्त हुआ !
अब न कोई दौड़ शेष है
न जग की न भीतर की ही,
ठहर गया उर ज्यों आकाश
कंपती नहीं ज्योति अंतर की !
अब न कोई दौड़ शेष है
जवाब देंहटाएंन जग की न भीतर की ही,
ठहर गया उर ज्यों आकाश
कंपती नहीं ज्योति अंतर की !
bahut sundar rachna
ठहर गया उर ज्यों आकाश
जवाब देंहटाएंकंपती नहीं ज्योति अंतर की !
sunder udgar man ke ...
जग से लौटा ठहरा खुद में
जवाब देंहटाएंस्वयं से भी फिर मुक्त हुआ,
स्वयं ‘पर’ के बल पर ही टिकता
मन इससे भी रिक्त हुआ !
बहुत ही सुन्दर.....काश ये अवस्था कभी हम जैसो की भी हो जाये।
जग से लौटा ठहरा खुद में
जवाब देंहटाएंस्वयं से भी फिर मुक्त हुआ,
स्वयं ‘पर’ के बल पर ही टिकता
मन इससे भी रिक्त हुआ !
इस भावपूर्ण रचना के लिए बधाई स्वीकारें
नीरज
बहुत गहन और सुंदर प्रस्तुति...आभार
जवाब देंहटाएंयही तो मुक्ति मार्ग है...
जवाब देंहटाएंसुन्दर भाव अनीता जी..
सादर.
अब न कोई दौड़ शेष है
जवाब देंहटाएंन जग की न भीतर की ही,
ठहर गया उर ज्यों आकाश
कंपती नहीं ज्योति अंतर की !
... "..............."
बेहतरीन भाव ... बहुत सुंदर रचना प्रभावशाली प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत बड़ी बात है जो भीतर की ज्योति कांपे नहीं .. मंत्रमुग्ध करती रचना..
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