प्रिय ब्लोगर साथियों,
‘खामोश खामोशी और हम’ यह पुस्तक अभी हाल
में ही में आदरणीया रश्मि प्रभा जी के संपादन में छपी है. इसमें अठारह कवियों व
कवयित्रियों की रचनाएँ सम्मिलित हैं. मैं अपनी अगली सत्रह पोस्ट में इनमें से हरेक
कवि के कविता संसार से आपका परिचय कराना चाहती हूं, आशा है सुधी पाठकों का सहयोग
उनकी प्रतिक्रियाओं के रूप में मिलेगा, रश्मि जी, आपसे भी अनुरोध है कि इस श्रंखला
को पढ़ें व आपने सुझाव दें.
पुस्तक के पहले कवि
हैं- शेखर सुमन, पटना में जन्मे युवा कवि शौक के लिये लिखते हैं,
इंजीनियर हैं व पोस्ट ग्रेजुएशन कर रहे हैं. उनकी छह कवितायें पुस्तक में हैं.
पहली कविता का
शीर्षक है, “हाँ, मुसलमान हूँ मैं” कवि उन मुसलमान भाइयों को यह कविता समर्पित
करता है जिनको उनकी कौम के चंद गुनहगारों के कारण शक की निगाह से देखा जाता है.
... ...
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ये शक भरी निगाह
मेरा इनाम नहीं
इस धरती को मैंने भी
खून से सींचा है
मेरे भी घर के आगे
एक आम का बगीचा है
.....
हरी भरी धरती से
सोना उगता किसान हूं मैं
गर्व से कहता हूँ,
हाँ मुसलमान हूँ मैं
शेखर सुमन की
कविताओं में बचपन की याद रह रह कर आती है.
“वो लम्हे शायद याद न हों” नामक कविता में वह खिलौने, स्कूल में बिताया पहला
दिन, दादी की प्यार भरी पप्पी याद करते नजर आते हैं तो “माँ” नामक कविता में भी
बचपन को बुलाते हैं.
मेरी सारी दौलत,
खोखले आदर्श
नकली मुस्कुराहट
सब छीनकर
दो पल के लिये ही
सही
मेरा बचपन लौटा देती
है माँ
....
परेशान वह भी है
अपनी जिंदगी में बहुत
पर हँसी के पर्दे के
पीछे
अपने सारे गम भुला
देती है माँ
आज की भागदौड़ की जिंदगी
में हमारे बुजुर्ग अकेलेपन का अभिशाप भोगने को विवश हैं, “तुम कहाँ हो” नामक कविता में एक वृद्ध पिता अपने बेटे को ढूँढता हुआ
गुहार लगाता है-
तुम शायद भूल गए वो
पल
जब उन नन्हें हाथों
से
मेरी ऊँगली पकड़ कर
तुमने चलना सीखा था
....
आज जब तुम बड़े हो गए
हो
जिंदगी की दौड़ में
कहीं खो गए हो
आज जब मैं अकेला हूँ
वृद्ध हूँ लाचार हूँ
मेरे हाथ तुम्हारी
उँगलियों को ढूँढते हैं
..
दिल आज भी घबराता है
कहीं तुम किसी उलझन
में तो नहीं
तुम ठीक तो हो न
कवि शेखर सुमन की पाँचवी
कविता है, “थके हुए
बादल “
कुछ थके हरे बादल
मैं भी लाया हूँ
यूँ ही चलते चलते
हथेली पर गिर गए थे
...
तुन्हारी हर
खिलखिलाहट के साथ बरसना
शायद इन्हें भी
अच्छा लगता था अब तो जैसे ये यादें
टूटे पत्तों की तरह
हो गयी हैं
जिन्हें बारिश की
कोई चाह नहीं
...
तभी मैं सोचा करता
हूँ
ये बारिश आखिर मेरे
कमरे में क्यों नहीं होती
आज के खौफनाक मंजर
को दिखाती है इनकी अंतिम कविता “नयी दुनिया”
ये कैसी दुनिया है
जहाँ मनुष्य ही
मनुष्य का दुश्मन है
कैसा शोर है ये
चारों तरफ
...
..
क्यूँ आज इंसान
इंसान से डरता है
हृदय की कोमल धरा पर
काँटे क्यों उग आये हैं
जीवन के मायने कुछ
बदल से गए हैं
अब अपनी जीत शायद
दूसरों की हार में है
...
यह वो दुनिया तो
नहीं जो ईश्वर ने बनायी थी
यह तो कोई और ही
दुनिया है
कवि शेखर सुमन की
कविताये पढ़ते हुए बरबस ही भविष्य के लिये आशा की एक उम्मीद जगती है, कवि को इन
सुंदर कविताओं के लिये बधाई व शुभकामनायें !