जीना इसी का नाम है
अँधेरे कमरे में
बंद आँखों से
खाते हुए ठोकरें
वे चल रहे हैं
और इसे जीना कहते हैं...
बाहर उजाला है
सुंदर रास्ते हैं
वे अनजान हैं
इस शहर में
सो बाहर नहीं निकलते हैं....
जाने क्या आकर्षण
है इस पीड़ा में
कि दुःख को भी
बना लेते हैं साथी
बड़े एहतियात से
बना कर घाव
उस पर मरहम धरते हैं..
पुकारता है अस्तित्त्व
वह प्रतीक्षा रत है
कैसा आश्चर्य है
सीमाओं में बंधा हर मन
फड़फड़ाता है अपने पंख
पिंजरे में बंद पंछी की तरह
पर द्वार पिंजरे का
खोले जाने पर भी
नहीं जाता बाहर
अपने सलीबों से वे बंधे रहते हैं
अपने सलीबों से वे बंधे रहते हैं
जवाब देंहटाएंह्म्म्म...जरूर कोई मजबूरी होगी जो इंसान यूँ अपने खोह से बहर नहीं निकल पाते...भावपूर्ण रचना...बधाई
नीरज
वाह....
जवाब देंहटाएंसीमाओं में बंधा हर मन
फड़फड़ाता है अपने पंख
पिंजरे में बंद पंछी की तरह
पर द्वार पिंजरे का
खोले जाने पर भी
नहीं जाता बाहर
अपने सलीबों से वे बंधे रहते हैं...
बहुत सुन्दर...अद्भुत भाव.
सादर
अनु
सीमाओं में बंधा हर मन
जवाब देंहटाएंफड़फड़ाता है अपने पंख
पिंजरे में बंद पंछी की तरह
पर द्वार पिंजरे का
खोले जाने पर भी
नहीं जाता बाहर
अपने सलीबों से वे बंधे रहते हैं
...एक शास्वत सत्य की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति...बहुत सुन्दर...आभार
bahut sundar rachna सीमाओं में बंधा हर मन
जवाब देंहटाएंफड़फड़ाता है अपने पंख
पिंजरे में बंद पंछी की तरह
बहुत खूब...|
जवाब देंहटाएंजकड़े हुये मन की दास्तान ..... बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंदुःख भी एक गहरी आदत बन जाती है..जिसे छोड़ने में फिर दुःख होता है.सही कहा है आपने..
जवाब देंहटाएंवाह वाह.....बिलकुल सही है शायद हम खुद ही अपने अपने दुखों से चिपके रहते हैं ....बहुत सुन्दर।
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