फूलों, रंगों, झरनों वाले, क्यों भाते हैं गीत
तू बसता है इनमें स्वयं ही, तू जो सबका मीत !
कुहू कुहू कूजन वूजन
सब तुझसे ही घटती है,
एक लोक है इससे सुंदर
सदा वहीं से आती है !
यह हल्की सी छुवन है तेरी
पत्तों की सरसर भी तुझसे,
शरद काल का नीला अम्बर
कहता तेरी गाथा मुझसे !
हरी कोंपलों पर किरणों की
चमक रूप नए
धरती है,
स्वर्णिम तेरा रूप अनोखा
छवि कैसी पुलक भरती है !
केसरिया, श्वेत तन वाले
पारिजात क्यों झर जाते हैं,
तेरे सुरभि कोष से लेकर
कतरे चंद बिखर जाते हैं !
धूप-छाँव का खेल अनोखा
दिवस-रात्रि का मेला अद्भुत,
तूने सहज रचा है प्रियतम
तू ही बदली तू ही विद्युत !
वाह क्या कहने अनिता जी ...
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुती :)
सब उस प्रियतम का ही रचा खेल है .... सुंदर भाव
जवाब देंहटाएंसबमे उसका नूर समाया
जवाब देंहटाएंवाह..
जवाब देंहटाएंकेसरिया, श्वेत तन वाले
पारिजात क्यों झर जाते हैं,
तेरे सुरभि कोष से लेकर
कतरे चंद बिखर जाते हैं !
बहुत सुन्दर अनिता जी...
सादर
अनु
रोहितास जी, संगीता जी, वन्दना जी व अनु जी आप सभी का स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंतू बसता है इनमें स्वयं ही, तू जो सबका मीत.......बेहतरीन और शानदार।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया...इमरान
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जवाब देंहटाएंफूलों, रंगों, झरनों वाले, क्यों भाते हैं गीत
तू बसता है इनमें स्वयं ही, तू जो सबका मीत !
सुन्दरम मनोहरं .काव्य सौन्दर्य देखते ही बनता है पूरी रचना में .
वीरू भाई, स्वागत व आभार !
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