खामोश ख़ामोशी और हम के अगले कवि हैं, श्री मुकेश कुमार तिवारी. मध्य प्रदेश के निवासी
मुकेश जी पेशे से इंजिनियर हैं,कविता व व्यंग्य लेखन करते हैं,. इन्होंने जीवन को
करीब से देखा है व कविता से उर्जित होकर जीवन के हर पड़ाव का सामना किया है. इस
संकलन में कवि की दस कवितायें हैं. कविताओं के विषय-वस्तु समाज, मन, भाषा,
परिवार है. इंसान का बदलता हुआ चरित्र इनकी पहली व दूसरी कविता का विषय है, पहली
का शीर्षक है इंसान के करीब से गुजरते हुए तथा दूसरी का इंसान के बारे
में –
१.
साँप,
यदि अब भी साँप की
तरह ही होते
... 
...
जब से
परियां आसमान से 
नहीं उतरीं जमीन पर 
और मेरे पास वक्त
नहीं बचा  
न दादी के लिए और न
अपने लिए 
साँप,
पहनने लगे हैं इंसानी
चेहरा 
और बस्तियों में रह
रहे हैं 
बड़ा खौफ बना रहता है
किसी इंसान के करीब
से गुजरते हुए 
२.
मुझे 
यह लगता था कि
यह लगता था कि
इंसान बातों को
समझता है 
...
अपने तर्कों को औजार
बनाया था मैंने 
उनसे बातें करने को 
..
यह भी लगता था कि 
सभी इंसान दिल से अच्छे
होते हैं 
..
और मैं सबसे दिल खोल
के मिलना चाहता था
...
यही सीखा था कि 
इंसान जब समूह में
रहते हैं तो 
समाज का निर्माण
करते हैं 
मैं सबको साथ ले के चलना
चाहता था 
मैं 
ये ही सीख पाया कि
धीरे धीरे समाज
विघटित होता है 
और यूनियनों में बिखरने
लगता है 
गाली, गलौच और नारों
के साथ 
..
वही इंसान अपनी
केंचुली बदल 
जब किसी निगोशिएशन
में आता है सामने तो 
मुझे देखता है किसी
सपेरे की तरह 
और फुफकारने लगता है
..
भ्रमित हो जाता हूँ
मैंने जो सीखा था अब
तक 
इंसानों के बारे में
क्या वह बकवास था ?
कवि की तीसरी कविता
है प्रश्नों की चिंगारी जिसमें वह कहता है कि मन की जिज्ञासा
की चिंगारी को कैसे आग बनाया जाता है ताकि वह सार्थक सिद्ध हो सके-
मन में,
न जाने कितना 
कुछ चल रहा होता है
एक साथ 
....
मन जैसे कोई शांत
झील हो 
और कोई प्रश्न 
अचानक किसी कंकड़ की
तरह 
उठा देता है तरंगें 
..
लेकिन
...
हर एक, 
प्रश्न चिंगारी की
तरह होता है
जिसे सहेजना होता है
आग में बदलने के लिए
खुद जलते हुए  
कवि मुकेश को भाषा
और लिपि की सीमा का आभास है, अगली दोनों कविताएँ जब आदमी ने पैदा किये शब्द व
जब, गुम हो जाएँ लिपियाँ भाषा की अपेक्षा मौन महत्व देती हैं, क्योंकि कवि के
अनुसार शब्दों के माध्यम से सच नहीं सिखाया जा सकता...
१. 
जब 
आदमी ने 
नहीं पैदा किये थे 
अक्षर 
और शब्द तो कहीं थे
ही नहीं
तब मौन बदलता था
संवाद में 
भंगिमाओं के सहारे
और दुनिया 
तब भी चल रही थी 
..
यदि मैंने नहीं सीखा
होता पढ़ना 
और समझना 
तो शायद कभी नहीं
मारता
अपने मन को 
..
मुझसे 
यह पहले पूछा ही
नहीं गया कि 
क्या मैं चाहता हूँ 
पढ़ना-लिखना 
और बदल जाना एक भीड़
में 
...
ऐसे 
कई मौकों पर 
सिर्फ इस अपराध बोध
से 
घोंट लेता हूँ गला
कि
मैं समझ पा रहा हूँ 
मुझे परोसा गया है
सच ! 
न जाने कितने
अर्धसत्यों या झूठों को मिलाकर 
और मेरा विवेक 
होंठों को सी देता
है 
गुम हो जाएँ लिपियाँ
इस कविता में कवि उस
वक्त की कल्पना करता है जब सारी लिपियाँ खो जाएँगी और उसका नाम किसी पत्थर पर
उकेरा गया होगा तो कौन उसे जानेगा, यदि वह किसी के दिल में बसे तो उम्मीद है कि तब
तक जिन्दा रहे...
मैंने,
कभी नहीं चाहा कि
जोड़कर अंजुरी भर लूँ
अपन हिस्से की धूप
और अपने सपनों को
बदलने की 
कोशिश करूं हकीकत
में 
...
आकाश मेरे लिए सहेज
कर  रखे 
एक टुकड़ा छाँव सुख
भरी 
...
मेरे आस-पास आभामंडल
बने 
....
जब मैं अपनी ही खोज
किसी कतार में खड़ा 
आरम्भ कर रहा हूँ
सीखना 
रौशनी कैसे पैदा की
जाती है 
खून को जलाते हुए
हाड़ की बत्ती से 
..
नहीं चाहा कि 
मेरा नाम उकेरा जाये
दीवारों पर 
या पत्थर के सीने पर
और वर्षों बाद भी जब
गुम हो जाएँ लिपियाँ 
मैं अपने नाम के साथ
जिन्दा रहूँ 
अनजानी पहचान के साथ
जब मैं चाहता रहा कि
मेरा नाम किसी दिल
के हिस्से पर 
बना सके अपने लिए
कोई जगह 
और धड़कता रहे 
किसी दिन शून्य में
विलीन होने से पहले 
जूड़े में गुंथे सवाल
कवि की अगली सशक्त
कविता है, जो अपने सहज प्रवाह और गहरे भाव के सरलता से प्रकट किये जाने के कारण दिल
को छू जाती है-
मैं, 
जनता हूँ 
तुम्हारे पास कुछ
सवाल हैं 
जो, 
अक्सर अनुत्तरित ही
रह जाते हैं
मुट्ठी में बंद अनाज
के दानों की तरह 
जो सारी उम्र इंतजार
ही करते रह जाते हैं 
उनकी 
मिटटी की तलाश पूरी
ही नहीं होती 
...
..
उनमें से ही कोई
सवाल 
रह-रहकर उभरता है 
तुम्हारे चेहरे पर 
फिर कसमसोस कर घुट
जाता है 
तुम्हारे सिर झटकने
में या बिलावजह मुस्कुराने में 
..
वो सारे सवाल 
जो नहीं कर पाए, जो
जी में आया 
रात को बिखरने लगते
हैं 
..
और तलाशते हैं वजूद
अपना 
तुम्हारी कुरेदी गई
लकीरों में 
चादर में बुनी गयी
सिलवटों में 
या चबाये गए तकिये
के कोने में 
इससे पहले कि 
सुबह तुम बटोर लो
उन्हें 
और, 
गूँथ लो अपने जुड़े
में 
मुकेश जी की अगली
कविता है दिन-शाम-रात आज की सभ्यता मानव को एक अंतहीन दौड़ में खड़ा कर देती
है, इसी त्रासदी का चित्रण हुआ है इस प्रभावशाली कविता में-
दिन, 
जैसे सुबह निकला ही
नही हो 
उठते से ही 
प्लान तैयार थे दिन
पर 
यह करना, वह करना है
...
सभी घंटे बंटे हुए
थे 
...
एक सिर्फ 
अपने लिए वक्त नहीं
था 
शाम 
अभी हुई ही नहीं है 
भले ही चांद चढ़ आया
हो 
आसमान में..
अभी भी मेरा दिन चल
रहा हो 
अपनी सुस्त चाल से 
...
जैसे ऑफिस नहीं हुआ 
किसी ब्लैकहोल को
भरने की मजबूरी हो 
रात 
कब आ पाती है 
..
तब भी लगता है 
जैसे अभी वो सब तो
करना बाकी है 
जो पिछली रात भी 
घुला हुआ था सपनों
में 
..
मैं सिर्फ एक कैदी
से ज्यादा 
नहीं महसूस करता 
जब भी ऑफिस में होता
हूँ 
या घर पर 
...
उगती दीवारों के बीच
में कवि जीवन पथ पर
निरंतर होने वाले परिवर्तन को देखता है जिसको हर हाल में घटना ही है.
कुछ 
पता नहीं चलता कि
कब तुम नींव से बदले
स्तम्भ में 
फिर दीवारों में
वक्त के साथ
और 
तुम्हारी उपयोगिता
पर ही 
उठने लगे सवाल 
नए रास्तों के
लिए   
रास्ते 
जिन पर न जाने 
कितने लोगों ने पायी
होंगी मंजिलें 
...
तब जमीन में होने
लगती हैं 
हलचल 
...
दीवारें कुर्बान
होने लगती हैं 
नए रास्तों के लिए
..
एक खत पापा के
नाम  जैसा कि शीर्षक से स्पष्ट है, यह कविता एक खत के
रूप में लिखी गयी है, अपने पिता से जुडी यादों को उकेरते हुए कवि एक दिन ऐसा पत्र
लिखना चाहता है जो महज औपचारिकता नहीं होगी-
पापा,
कोई जमा तेईस सालों
बाद 
मुझे आज यह लगा कि 
अपनी राजी-खुशी का हाल
लिखूं 
...
मैं 
अपनी जिंदगी में
शायद 
यही नहीं सीख पाया
हूँ, चिट्ठी लिखना 
...
गिनती की कुल जमा तीन-चार
चिट्ठियां ही मिली
होंगी मेरी अब तक 
...
सिर्फ अपने आने की, भेजे
जाने की
औपचारिकताएँ निभाती
चिट्ठियाँ
..
अब 
किसी दिन मैं
सीखूंगा 
आपसे चिठ्ठी लिखना,
‘उसके खत’ की तरह 
...
माँ, केवल माँ भर
नहीं होती इस संकलन में कवि की अंतिम रचना है, न जाने कितनी कविताओं में कवियों ने माँ
को परिभाषित करने की चेष्टा की है, लेकिन माँ कभी नहीं समाती शब्दों में..वह प्रेम
की तरह असीम है-
माँ 
किसी भी उम्र में 
केवल माँ भर नहीं
होती 
...
माँ 
के होने का मतलब है 
जिसकी छाती पे चिपका
सकते हो 
तुम डरावने ख्वाब 
..
मांग सकते हो कुछ भी
चाहे उसके पास हो या न हो 
पर वह कोशिश जरूर
करती है खोजने की 
मुँह उठा के मना
नहीं करती 
माँ 
इस उम्र में भी 
अपने से ज्यादा
चिंता तुम्हारी करती है 
...
माँ अपनी पूरी उम्र
में 
कभी जी ही नहीं पाती
है अपने लिए 
या तो बुन रही होती
है स्वेटर तुम्हारे लिए 
या तो पाल रही होती
है कोख में तुम्हें 
..
माँ 
केवल माँ भर नहीं
होती 
अपनी जिंदगी भर 
मुकेश जी की
कवितायें पढकर मुझे भुत आनंद आया और उससे भी अधिक उन्हें आप सभी के साथ बाँटने में
, आशा है आप भी इनका रसास्वादन करेंगे. इनके ब्लॉग का पता है-http:/tiwarimukesh.blogspot.com
और इनका इमेल पता
है-mukuti@gmail.com
.
सभी रचनाएँ प्यारी हैं...
जवाब देंहटाएंमाँ, केवल माँ भर नहीं होती और एक खत पापा के नाम दिल को छू जाती है...
आभार अनिता जी..
सादर
अनु
आपने सही कहा है..आभार!
हटाएंबहुत बढ़िया....सुन्दर समीक्षा..आभार
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंvery nice presentation
जवाब देंहटाएंगहरा चिंतन है मुकेश जी की कविताओं में ..
जवाब देंहटाएंउन्हें शुभकामनाएं
मुकेश जी का परिचय और उनका काव्य संसार अदभुत लगा.
जवाब देंहटाएंआभार.
बहुत सुन्दर समीक्षा..मुकेश जी के कृतित्व से परिचय बहुत अच्छा लगा...आभार
जवाब देंहटाएंकैलाश जी, रचना जी, संगीता जी, शालिनी जी, माहेश्वरी जी, मनु जी आप सभी का स्वागत व आभार !
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