खामोश, ख़ामोशी और हम के
अगले कवि हैं बेगूसराय (बिहार) में जन्मे मुकेश कुमार सिन्हा, जो
वर्तमान में कृषि व खाद्य प्रसंस्करण उद्योग राज्य मंत्री के साथ सम्बद्ध हैं. जिंदगी
की राहें के नाम से इनका ब्लॉग है. जिसका पता है –
www.jindagikeerahen.blogspot.com
तथा इनका इमेल पता है –
mukeshsaheb@gmail.com
आदरणीया रश्मि प्रभा जी द्वारा
सम्पादित इस संकलन में इनकी सात कवितायें हैं, सभी रोजमर्रा के जीवन से जुड़ी हैं, आभासी
मैं में कवि खुद से बातें करता है तो एक टुकड़ा आसमान में जिंदगी के
संघर्ष में एक पंछी से प्रेरित होता है. पता नहीं क्यों में वह खुद
की कमजोरियों को सहजता से स्वीकारता हुआ अन्यों से उम्मीद रखने की खुद की
प्रवृत्ति पर नजर डालता है. इतिहास में उन अनदेखे व्यक्तियों को याद किया
गया है जो अनाम रह जाते हैं पर इतिहास के गढ़ने में उनका भी हाथ होता है. प्रेम
का स्वरूप में प्रेम के बदलते हुए रंग-ढंग को खूबसूरती से निहारा गया है, ऐ
नादाँ हसीना में एक अलौकिक प्रेमिका का चित्रण है जिसकी स्मृति मात्र ही मन को
सुकून से भर देती है. राखी की चमक एक दुखद कविता है जो कवि ने अपनी बड़ी बहन
के देहांत के बाद लिखी थी. कवि मुकेश अपने परिवेश के प्रति सजग रहते हुए बाहर से भीतर की यात्रा
करते हैं.
आभासी मैं
चेहरे पे ब्रश से फैलाता
शेविंग क्रीम
..
सामने आईने में
दिखता अक्स-
ओह !
..
दिखे दो चेहरे
..
एक तो मैं ही था
और !
एक ‘आभासी मैं’
मैंने कहा
आधी से ज्यादा जिंदगी बीत गयी
वो बोला
हुंह ! अभी आधी पड़ी है जिंदगी मित्र
...
पढ़ लिया उसने
मेरे चेहरे पर
मेरा जवाब..और हताशा भी
मुझे खुद से थीं बहुत सी उम्मीदें
..
कहीं खोती चली गयीं
जिंदगी के चौराहे में
वो हँसा..बेवकूफ इंसान !!
सपनें, उम्मीदें, आवश्यकता
पूरे होने का नहीं होता पैमाना
होती है सिर्फ संतुष्टि
होती है सिर्फ खुशियों की महक
....
..
अब तक कट चुकी थी दाढ़ी
‘आभासी मैं’ से फिर मिलने का वादा
आईने में दिखा
अपने ही अक्स में
कुछ नया सा..अनोखा आकर्षण
थोड़ी ज्यादा चमक
..
क्योकि आभासी चेहरे ने
आईने की ओट से
मुझे दिखा दी थी
मेरी ही अपरिमित क्षमताओं की पोटली
और जगा दी थी मुझमें
फिर से उम्मीद
एक टुकड़ा आसमान
छत की मुंडेर पर बैठा
निहार रहा था
सुबह का नीला आसमान
..
घेरे हुए थे लाखों प्रश्न
..
दिल में एक हूक सी उठी
..
कब तक गुजरूँ
इस संघर्ष की राह पर
कब पहुंचेगे वहाँ
जहां तक है चाह
कब इस
विशाल आकाश के
एक अंश
..
पर होगा
अपना हक
..
तभी दिखा
एक उड़ता
फड़फड़ाता हुआ
कबूतर
...
जैसे सारा
जहाँ हो उसका
बिना किसी सीमा के
अचानक
सुबह की तीखी धूप ने
लगाया सोच पर विराम
...
झटक आया अपनी सोच और
ले आया साथ
कबूतर की ओट से
उम्मीदों भरा एक टुकड़ा आसमान !
..
आज ख्वाबों में
शायद कल
होगा इरादों में
और फिर वजूद होगा मेरा
मेरे हिस्से का आसमान
पता नहीं क्यों
पता नहीं क्यूँ?
अपने बच्चों को सिखाता हूँ
सच कहना
पर कल ही उनसे झूठ कहलवाया
..
पति-पत्नी के रिश्तों पर
मैं उससे रखता हूँ
उम्मीद-विश्वास कि
..
मेरी खुद नजर
नहीं बद नजर
थी एक लावण्या पर
..
माँ-पापा को रहती है
मुझसे उम्मीद
..
..
पर कल ही माँ ने
फोन पे कहा
भूल गया न तू !
..
...
भ्रष्टाचार दूर करने के
मुद्दे पर,
चढ़ जाती हैं
मेरी त्योरियां
पर पहचानता हूँ क्या
मैं खुद की ईमानदारी ?
...
लगता है मुझे
एक आम इंसान
शायद होता है
मेरे जैसा ही
क्या ये सच है
..
अपनी ही कमजोरियों
के साथ
खुद को बेबस मान
हम को सबके साथ
बस यूं ही जीना है
इतिहास
एक दिन खोल बैठा
एक पुस्तक इतिहास की
जैसे ही मेरी उंगलियों ने
पलते कुछ पन्ने,
तो फरफराते पन्नों
से उछल उछल कर बहुत सारे शब्द
करने लगे गुणगान
..
कैसे राजाओं ने, रण-बांकुरों ने
दुश्मनों के खींच ली जबान
...
पर उस इतिहास की पुस्तक
के हर पन्ने पर
..
जहाँ भी होता था कौमा या पूर्ण विराम !
कुछ अनदेखे चेहरे
कुछ बेनामी लोगों
के साहस और दर्द की आवाज
धीमे से कह रही थी
इतिहास में हम बेशक नहीं हैं
पर हमने भी रचा है इतिहास
प्रेम का स्वरूप
जिंदगी बदली
बदली सोच
..
मन के अंदर
झंकृत करने वाला
बदला वीणा का राग
पर क्या बदल सकता है
प्रेम या प्यार ?
..
लेकिन कहना होगा
वो भी बदला
...
बदला प्रेम से प्रस्फुटित होता
त्याग, प्रतीक्षा, वायदा !
यथर्थ की धरातल
पर आ पहुंचा प्यर
..
...
पहले बनते थे
प्यार में ताजमहल
पर बदल गए
वो प्रेम समीकरण
..
नहीं होता कोई मंजनू या राँझा
अब तो कहते हैं
लैला या हीर नहीं तो
कोई और ही आ जा
...
सच में कितना बदल गया है
प्यार !
ऐ नादान हसीना
ऐ नादान हसीना
क्यों तेरा इठलाना..
ऐसे लगता है जैसे
...
हिलोरें मरती लहरों
का ऊपर उठना
और फिर नीचे गिरना
...
क्यूँ तेरे आने
की एक आहट
भर दे ख्यालों में
सतरंगी रंगत
..
पर क्यूँ
जैसे ही नजरों से ओझल हुई
लगता है
चांदनी बिखर गयी
...
ख्यालों में उसका अहसास
और उसकी तपिश
देती है एक सुकून
एक अलग सी खुशबू
राखी की चमक
आधी रात का वो पहर जो थी बहुत काली
अस्पताल का एक कमरा
...
उसी बेड पर बैठे हुए
मेरी कलाई पर बांधी थी राखी
वो राखी जो दो दिन बाद तक
चमकते हुए कह रही थी
ऐ दीदी के भैया
कर कोशिश, बचा के रख
उसकी जीवन नैया
..
मैंने ली एक झपकी
तो लगा जैसे दीदी ने दी थपकी
...
मैंने प्यार से किया स्पर्श
दीदी ! मैं हूँ न
‘पागल हो क्या’
बस एक की थी कोशिश
की दे सकूं ढाढ़स
..
एकाएक स्क्रीन के सारे
मीटर हो गए गुम
मैंने खुली आँखों से
उस मंजर को देखा
क्या कहूँ दिल चिहुँका
चिल्लाया- दीदी
लेकिन वो हो चुकी थी स्थिर
निस्तेज, शांत
... ..
ऐसे लगा जैसे
सब हैं खामोश
मैं भी एकदम से स्तम्भित ! स्तब्ध !
पर मेरी कलाई की राखी
की चमक कह रही थी
पगले !! मैं हूँ तेरे साथ
कहाँ भागेगा मेरे से
विश्वास न हुआ, पर उस माहौल में भी
मेरा चेहरा धीरे से मुस्कुराया था
पता नहीं क्या सच था
क्या जीवन है !
क्या जीवन था !
कवि मुकेश कुमार सिन्हा की कविताओं में एक सहजता है, भावों की बहुलता
है सीधे सरल शब्द हैं और आम आदमी के मन की कथा, व्यथा है. जमीन से जुडी ये कविताएँ
पढ़कर आप सभी सुधी पाठक जन भी आनन्दित हों ऐसी ही आकांक्षा है.
बहुत सुन्दर मुकेश जी को बधाई..
जवाब देंहटाएंआभार माहेश्वरी जी !
हटाएंबहुत सुन्दर....
जवाब देंहटाएंअच्छे कवि होने के साथ एक बेहतरीन इंसान भी हैं मुकेश जी.
ढेर सारी शुभकामनाएँ उन्हें...
शुक्रिया अनिता जी
सादर
अनु
मुकेश जी के बारे में जान कर अच्छा लगा..आभार!
हटाएंसार्थक प्रस्तुति .मुकेश जी को बधाई. हार्दिक आभार हम हिंदी चिट्ठाकार हैं
जवाब देंहटाएंशिखा जी, शुक्रिया !
हटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति...मुकेश जी को बधाई और शुभ कामनाएं...
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचनाएँ, पढ़कर बहुत अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंपता नहीं क्यूँ?
जवाब देंहटाएंअपने बच्चों को सिखाता हूँ
सच कहना
पर कल ही उनसे झूठ कहलवाया
सत्य से प्रभावित रचनाएँ.......बाँटने के लिए धन्यवाद ।
इमरान, आपका भी शुक्रिया..
हटाएंकैलाश जी व निलेश जी, आपका स्वागत व आभार !
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