वर्षा
अमृत छलका
दानी नभ से
सिहरा रोम-रोम धरती का
जागे वृक्ष, दूब अंकुराई
शीतलता आंचल में भर
पवन लहराई.
भीगा तन पाखी का
उड़ा फड़फड़ा डैने
चहका मन भी
मस्त हुए नद-नाले पोखर
बाँट रहे जल उलीचकर.
आर्द्र हुई प्रकृति
द्रवित, कृतज्ञता-अश्रुजल से
थलचर, नभचर, वनचर भीगे
किन्तु न भीगा
मानव का उर
छिपता, बचता अमृत रस से
बंद घरों में
डरता जल से.
अमृत छलका दानी नभ से.. वर्षा की बढ़िया अभिव्यक्ति !!
जवाब देंहटाएंसादर !
बहुत सुन्दर भाव !
जवाब देंहटाएंडैश बोर्ड पर पाता हूँ आपकी रचना, अनुशरण कर ब्लॉग को
अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
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आर्द्र हुई प्रकृति
जवाब देंहटाएंद्रवित, कृतज्ञता-अश्रुजल से
थलचर, नभचर, वनचर भीगे
किन्तु न भीगा
मानव का उर
छिपता, बचता अमृत रस से
बंद घरों में
डरता जल से...... क्या कहने अनिता जी ... हृदय को भावों कि वर्षा से आर्द्र कर गई आपकी यह वर्षा !
थलचर, नभचर, वनचर भीगे
जवाब देंहटाएंकिन्तु न भीगा
मानव का उर
छिपता, बचता अमृत रस से
बंद घरों में
डरता जल से.
कभी कभी हम अमृत के पास होकर भी उसे ग्रहण नहीं करना चाहते
बहुत खूब, सुन्दर
सादर!
बहुत सुन्दर भाव !
जवाब देंहटाएंकिन्तु न भीगा
जवाब देंहटाएंमानव का उर
छिपता, बचता अमृत रस से
बंद घरों में
डरता जल से.
बहुत सुंदर
वर्षागमन मन को अनंदित कर अंतस को भी भिगो जाता है, सुंदर रचना लेकिन हम तो इन्तेज़ार में ही बैठे है की कब वारिश इधर भी आए.
जवाब देंहटाएंआपने लिखा....हमने पढ़ा
जवाब देंहटाएंऔर लोग भी पढ़ें;
इसलिए कल 16/05/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
धन्यवाद!
सच में अमृत ही तो है ... सबसे स्वक्ष, मीठा जल जो आता है वर्षा बन के ...
जवाब देंहटाएंआर्द्र हुई प्रकृति
जवाब देंहटाएंद्रवित, कृतज्ञता-अश्रुजल से
थलचर, नभचर, वनचर भीगे
किन्तु न भीगा
मानव का उर
छिपता, बचता अमृत रस से
बंद घरों में
डरता जल से.
....बहुत सुन्दर और सार्थक अभिव्यक्ति...आभार
अमृतमयी अभिव्यक्ति..
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